सोमवार, 29 दिसंबर 2008

कब थमेगा मध्य-पूर्व में खूनी खेल ?

छह महीने के युद्ध विराम के बाद मध्य- पूर्व एक बार फ़िर से अशांत हो गया है। इज़रायल ने फ़लीस्तीनी शहर गाज़ापट्टी में मिसाइल हमले किए, जिसमें दो सौ से ज्यादा लोग मारे गए और हज़ारों की तादाद में लोग घायल हुए हैं। इन हमलों के पीछे इज़रायल का दावा है कि उसने ये हमले गाज़ा में हमास के आतंकी शिविरों पर किए हैं,जो कुछ रोज़ पहले इज़रायल पर रॉकेट हमलों का ज़बाब है। इसके साथ इज़रायल ने ये भी धमकी दी है कि वो हमास के ख़िलाफ़ फ़लीस्तीन में ज़मीनी लड़ाई से भी गुरेज़ नहीं करेगा। इस हमले की निंदा अरब लीग समेत यूरोपियन यूनियन ने भी की है- जबकि ह्वाइट हाउस ने ब़यान जारी किया है कि इज़रायल को अपनी सुरक्षा का पूरा हक़ है। लेकिन अमरीका ने ये नहीं कहा कि ये तुरंत बंद होने चाहिए। वैसे अमरीका से इसकी उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए। क्योंकि इज़रायल-फलीस्तीन विवाद में उसका क़िरदार दुनिया से छुपा नहीं है।
इज़रायल- फ़लीस्तीन मसला आज की तारीख़ में सबसे विवादास्पद मुद्दा है- इनके बीच जारी संघर्ष में लाखों लोग अपनी जान गवां चुके हैं और लाखों लोग बेघर हो चुके हैं। इस आग में समूचा मध्य-पूर्व जल रहा है। समूची दुनिया की पंचायत करने वाला संयुक्त राष्ट्रसंघ की भूमिका भी संतोषजनक नहीं है। जहां तक अमेरिका की बात है तो उसकी असलियत कुछ इस प्रकार है-

इज़रायल और अरब राष्ट्रों के बीच हुए भीषण युद्ध के बाद तत्कालीन इज़रायली प्रधानमंत्री एहुद बराक और फ़लीस्तीनी नेता यासिर अराफ़ात के बीच अमेरिका के कैम्प डेविड में पन्द्रह दिनों तक चली मध्य-पूर्व शांति शिखर वार्ता बगैर किसी नतीज़े के ख़त्म हो गई। इस विफलता की मूल वज़ह वो तीन मुद्दे थे लगभग 37 लाख फलीस्तीनी शरणार्थियों का भविष्य, भावी फ़लीस्तीनी राज्य की सीमाएं और येरूशलम पर नियंत्रण। इन तीनों मुद्दों पर इज़रायली प्रधानमंत्री बराक और यासिर अराफात के बीच कोई सहमति नहीं बन पाई और नतीज़ा रहा सिफ़र। ये सब अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की सक्रिय मध्यस्थता के बीच हुआ। जिसे पश्चिमी मीडिया ने अमरीका के शांति एवं लोकतंत्र प्रेम के रूप में खूब बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित किया। लेकिन अमरीका की मौजूदगी में शांति वार्ता का ये हश्र कोई ताज़्जुब की बात नहीं है।

इज़रायल और फ़लीस्तीनी अरबों के बीच के विवाद के प्रेक्षकों से ये बात छिपी नहीं है कि पिछले पाँच दशकों के दौरान इस क्षेत्र में अमन बहाली के लिए अमरीकी कोशिशों का मतलब क्या रहा है। हमेशा अमरीकी नेतृत्व ने इज़रायल- फ़लीस्तीनियों के बीच समझौते के नाम पर इज़रायली शर्तें मनवाने की कोशिश की है। इज़रायली वजूद की ही बात करें तो- तमाम औपनिवेशिक साम्राज्यवादी साजिशों के तहत नवंबर 1947 में संयुक्त राष्ट्रसंघ फ़लीस्तीन को एक अरब और एक यहूदी राज्य के रूप में बाँटने को राज़ी हो गया था। लेकिन यहूदियों को यह भी गवारा नहीं हुआ, इससे पहले कि विभाजन हो पाता यहूदियों ने इज़रायल नाम से देश का ऐलान कर दिया।
अमेरिका ने बेहद फुर्ती दिखलाते हुए अगले ही दिन उसे मान्यता भी दे दी और उसी दिन से फ़लीस्तीनी अरबों के दर-दर भटकने का अंतहीन सिलसिला शुरू हो गया। लाखों की तादाद में अपना वतन छोड़कर उन्हें विभिन्न अरब राष्ट्रों में शरण लेनी पड़ी। उनकी ज़मीन ज़ायदाद पर यहूदियों ने कब्ज़ा कर लिया और धीरे-धीरे लगभग सारे फ़लीस्तीन पर अपना नियंत्रण कर लिया। इस दौरान अरब राष्ट्रों से इज़रायल के तीन घमासान युद्ध हुए। अमरीका की हर प्रकार की मदद से वह हर युद्ध में अरब राष्ट्रों के कुछ न कुछ इलाकों पर कब्ज़ा करता रहा। 1967 के युद्ध में इज़रायल ने पश्चिमी तट (वेस्ट बैंक), गाज़ा पट्टी, गोलान हाइट्स, सिनार और पूर्वी येरूशलम पर कब्ज़ा कर अपने में मिला लिया।
बहरहाल, 1967 के अरब- इज़रायल युद्ध के बाद विश्व जनमत चिंतित हो उठा एवं मध्य-पूर्व में अमन बहाली की कोशिशों में तेज़ी आई। इसके तहत संयुक्त राष्ट्रसंघ सक्रिय हुआ- संयुक्त राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद् का प्रस्ताव 242 पारित हुआ। जिसमें पूर्ण शांति का आह्वान करते हुए इज़रायल से कब्ज़ा किए गए अरब क्षेत्रों से हट जाने को कहा गया, लेकिन इस प्रस्ताव को अमल में नहीं लाया जा सका। हांलाकि इस चार्टर पर सबने दस्तख़त किए थे, लेकिन अमरीका ने ढ़ीला-ढ़ाला रूख अपनाते हुए इसकी नयी व्याख्या कर दी और इसके तहत इज़रायल ने कब्ज़ा किए गए इलाकों से हटने से इंकार कर दिया। नतीज़तन 1976 में इस प्रस्ताव को दुबारा सुरक्षा परिषद् में विचारार्थ लिया गया। इस दफ़ा प्रस्ताव 242 की बातों की रोशनी में एक नया प्रस्ताव बनाया गया, जिसमें साफ़ तौर पर वेस्ट बैंक और गाज़ापट्टी में एक फ़लीस्तीनी राज्य की स्थापना का प्रावधान जोड़ा गया। इस प्रस्ताव का मिस्त्र, जॉर्डन, सीरिया जैसे अरब राष्ट्र, यासिर अराफात की फ़लीस्तीनी मुक्ति संगठन, सोवियत संघ, यूरोप और बाकी दुनिया के देशों ने समर्थन किया। लेकिन अमरीका ने इस प्रस्ताव के खिलाफ़ वीटो का इस्तेमाल कर इसे रद्द करा दिया।



 इसी तरह 1980 में एक ऐसे ही प्रस्ताव पर अमरीका ने फिर वीटो का इस्तेमाल किया – इसके बाद ये मामला संयुक्त राष्ट्रसंघ की आमसभा में हर साल उठता रहा और इसके खिलाफ़ सिर्फ़ अमरीका और इज़रायल अपना वोट देते रहे। इतिहास से ये सारी बातें मानो निकाल दी गई हैं – उनकी जगह शांति स्थापना के अमरीकी प्रयासों की प्रेरक कथाओं ने ले ली है। और बताया जा रहा है कि अमन बहाली की ये सारी कोशिशें अरबों के कारण ही सफल नहीं हो पा रहे हैं।

अगर मध्य-पूर्व में वाकई अमन बहाली कायम करनी है तो इज़रायल- अमरीका को थोड़ा और आगे जाकर सोचना होगा। इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि अमन की कोशिशों को थोड़ी हिम्मत और समझ के साथ उसे सही अंज़ाम पर पहुँचाया जाए। इस मामले में इज़रायल-फ़लीस्तीन समस्या के सबसे गहन अध्येता और महान अमरीकी चिंतक नोम चोम्स्की के शब्दों में हम सिर्फ़ इतना कहेगें 
अगर राजनीतिक भ्रमों को छोड़कर मानवाधिकार एवं लोकतंत्र के सवाल को ध्यान में रखेंगे तो निश्चय ही इस समस्या का स्थाई हल निकलेगा।

रविवार, 21 दिसंबर 2008

जनमाध्यमों से ग़ायब़ हो रहे आम आदमी

पचास के दशक में विमल रॉय निर्देशित दो बीघा ज़मीन का एक गाना- धरती कहे पुकार के ............बार- बार इस फ़िल्म को देखने को मज़बूर करता है। जब भी इस फ़िल्म को देखता हूँ, तो कुछ नयापन दिखाई देता है। कुछ ऐसी ही बात फ़िल्म मदर इंडिया के साथ है। जिसे देखकर उसके पात्र अपने लगने लगते हैं, या खुद को उनके क़रीब पाता हूँ। कभी- कभी सोचता हूँ उन निर्देशकों के बारे में जिन्हें समय और समाज के नब्ज़ की अच्छी समझ थी। दो बीघा ज़मीन की गिनती उस ज़माने की ब़ेहतरीन फ़िल्मों में की जाती है। फ़िल्म की कहानी बंगाल में आए भीषण अकाल के षृष्ठभूमि पर आधारित थी- साथ ही उस दौर की ज़मीदारी व्यवस्था की नग्न हक़ीकत को उजागर करने वाली थी। शायद, यही वज़ह था- कि इसे कॉन फ़िल्म महोत्सव में पुरस्कृत किया। दो बीघा ज़मीन और मदर इंडिया को बने पचपन-छप्पन बरस होने चले हैं- उस ज़माने की तुलना में आज की फ़िल्मी दुनिया कहीं आगे निकल चुकी है।

 जनमाध्यमों में फ़िल्मों की अहम़ियत कहीं ज्यादा है- क्योंकि यह लोगों पर सीधा असर डालती है। फ़िल्मों के अलावे अख़बार, रेडियो, टेलीविज़न भी जनमाध्यम का ज़रिया है। इनका भी समय और समाज पर अच्छा ख़ासा असर है। भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में अख़बार का वज़ूद पिछले डेढ़-दो सौ सालों से है। इलेक्ट्रॉनिक माध्यम में रेडियो सबसे पहले आया- लेकिन टेलीविज़न न्यूज़ चैनल को ज्यादा वक्त नहीं हुआ है। अभी ये अपनी तरूणाई पर है – लेकिन आज हर तरफ़ इसी की चर्चा है।
भारत में टेलीविज़न पर समाचार अस्सी के दशक में दूरदर्शन ने शुरू किया था। अधेड़ उम्र के समाचार वाचक धड़ाधड़ देश- दुनिया के समाचार पढ़ रहे होते थे। और अंत में मौसम का हाल सुनाकर वो दर्शकों से इज़ाज़त लेते थे। नब्बे के दशक में समाचार पर दूरदर्शन के एकाधिकार को सबसे पहले चुनौती दिया – टीवी टुडे ग्रुप के आजतक ने, और यहीं से शुरू हुआ निज़ी टेलीविज़न न्यूज़ चैनलों की कहानी। वैसे तो मैं रेडियो का प्रिय श्रोता रहा हूँ – बीबीसी हिंदी सेवा से लेकर वॉयस ऑफ़ अमेरिका, रेडियो डॉयचे वेले और रेडियो चाइना इंटरनेशनल कॉलेज के दिनों में खूब सुना करता था। देश में कोई भी बड़ी घटना होने पर सुबह गाँव के संज़ीदा लोग मुझसे पूछा करते थे – कि ये ख़बर बीबीसी ने कही है। यानि एक तरह से ख़बरों की कसौटी बीबीसी ही तय करता था। आज भी गाँवों और छोटे शहरों में रहने वाले लाखों लोग बीबीसी सुनना पसंद करते हैं। टेलीविज़न में आज तक की विश्वसनीयता भी कुछ इसी तरह की थी। ख़ब़रें वही जो आज तक ने कही – ये वाक्य बीज मंत्र हुआ करता था। देश- दुनिया से लेकर आम आदमी की बातें आजतक में हुआ करती थी। 2000 के दशक में ख़बरों की दुनिया में आजतक ही अकेला नहीं रह गया – कई सारे प्राईवेट न्यूज़ चैनलों ने ख़बरों की दुनिया में दस्तक दी। पहले गिनती के लिहाज़ से उनका नाम याद था – लेकिन अब वे गिनती से बाहर हैं। चौबीसों घंटे वाली ख़बरिया चैनलों की देखते ही देखते बाढ़ आ गई। आज ज़बकि चैनलों की भरमार है – चौबीसों घंटे जनसेवा को ये तैयार हैं। लेकिन जनसरोकार की ख़बरे लगातार ग़ायब हो रही हैं।
 आज न्यूज़ चैनलों पर अमिताभ बच्चन का सिद्धिविनायक मंदिर पैदल जाना और उनके पैरों में पड़े छाले ख़बरों की शक्ल अख़्तियार कर लेते हैं। सलमान खान ने जेल में लौकी की सब्जी और चार रोटियाँ खाई – ये इनसाइड स्टोरी बन जाती है। संजय दत्त को हवालात में नींद नहीं आई – इस पर पैनल डिस्कशन किया जाता है। लेकिन उसी दिन बिहार में दलितों के घर आग लगाई जाती है, उड़ीसा में आदिवासी महिला के साथ सामूहिक बलात्कार किया जाता है - ये ख़बर नहीं बन पाती है।


आज के खबरिया चैनल टू –इन –वन नहीं बल्कि मल्टी – इन –वन हो गए हैं। आज न्यूज़ वालों के लिए सिर्फ़ राखी सावंत ही नहीं हैं। इनकी कृपा से एंकात में रहने वाले साधु-सन्यासी भी छोटे पर्दे पर चमक रहे हैं। इतना ही नहीं चंबलों और बीहड़ों में रहने वाले डकैत भी अब बदले कलेवर और नए संस्करण में छोटे पर्दे पर जनसंवाद और परिचर्चा करते नज़र आते हैं। इनकी महिमा ने तो भूत- प्रेतों से लेकर सांप- बिच्छू तक को ग्लोबल बना दिया है। अक्सर गाँव के चौपालों पर चुटकुले सुनाने वालों का भी खूब वारे-न्यारे किए इन चैनलों ने। कभी रामखेलावन, मंगरू और गोपी को हँसाने वाले अब चमचमाते स्टेज़ पर सुंदर- चिकने चेहरों को हँसाने लगे हैं। न्यूज़ चैनलों का योगदान यहीं ख़त्म नहीं होता – घर के झगड़े और सास- बहू के लफ़डों को भी इन्होंने मंच दिया है। लेकिन इस भीड़ में वो लोग और चेहरे कहीं नज़र नहीं आते, उनकी समस्याएँ कहीं नहीं दिखती- जिनकी आवाज़ बुलंद करने का भरोसा दिया था इन्होंने।


आख़िर इसे टीआरपी का तिलिस्म कहें या ख़बरों की दुनिया में बैठे पत्रकारिता के दुश्मन – जो आठ करोड़ की आबादी वाले चार महानगरों की पसंद और नापसंद को देश की सौ करोड़ की आबादी पर ज़बरन थोप रहे हैं। म़ौजूदा टीवी सीरियलों की बात करें तो – उसकी कहानी कुछ और ही बयां करती है। टेलीविज़न पर दिखने वाले ज्यादातर धारावाहिकों में अति उच्च संभ्रांत परिवारों की कहानी होती है। लगभग सभी सीरियल महिला प्रधान हो गई हैं – सबसे ख़ास बात ये है कि ये महिलाएँ लाचार नहीं हैं.... ये चतुर और षड्यंत्र रचती नज़र आती हैं। धनकुबेर महिलाएँ, सिगरेट के धुँए उड़ाती महिलाएँ। यहाँ भी आम महिलाओं की कहानी कहीं नज़र नहीं आती क्या यही हक़ीकत है इस देश की. क्या यही दशा है देशभर में महिलाओं की जो इन सीरियलों में दिखता है। कहने में अतिश्योक्ति नहीं कि मौज़ूदा जनमाध्यम हक़ीकत दिखाने की कोशिश में नहीं, बल्कि हक़ीकत छिपाने की क़वायद में में लगा हुआ है।

कुछ बात महानगरों में अति लोकप्रिय एफ़एम रेडियो की करें – इनकी दुनिया तो अज़ब ही है। देश में कुछ भी हो जाए, ये हमेशा खुश और श्रोताओं को गुदगुदाते रहते हैं। मुझे अच्छी तरह से याद है – जब देश के प्रधानमंत्री राजीव गांधी की मौत हुई थी। देशभर में सात दिनों का राष्ट्रीय शोक घोषित किया गया। टेलीविज़न और रेडियो पर कोई मनोरंजक कार्यक्रम इस अवधि में नहीं चलाए गए। लेकिन एफ़एम संस्कृति ने तो ग़म और शोक की परिभाषा ही उलट दिया। हाल की घटना है 26 नवंबर को मुंबई में आतंकी हमला हुआ और उसी दिन देश के पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह का निधन हुआ था। मैं घर और दफ़्तर के बीच रास्ते में था – मैंने रेडियो पर समाचार सुनने के लिए अपने मोबाइल पर एफएम ट्यून किया। मैं दंग रह गया कि सभी प्राइवेट एफएम स्टेशनों पर श्रोताओं को उनके मनपसंद गाने और बीच-बीच में अंग्रेज़ी-हिंदी मिश्रित हँसी मज़ाक का दौर चल रहा है। उन्हें जैसे पता ही नहीं कि देश में हालात क्या है. इसे क्या कहेंगे आप राष्ट्रीय शोक या राष्ट्रीय उत्सव...। इसे देखकर किसका राज कहेंगे आप सरकार का या कॉरपरेट जगत का। क्यों नहीं सज़ा मिलती इन्हें – क्या देश का कानून मानने और सज़ा भुगतने का हक़ सिर्फ आम आदमी को ही है।

शनिवार, 20 दिसंबर 2008

जियो टीवी का पत्रकारीय ज़िगर

आज लगभग सभी अख़बारों ने महत्वपूर्ण राष्ट्रीय ख़ब़रों के साथ जियो टीवी में दिए पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के इंटरव्यू को प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया है। इस इंटरव्यू में शरीफ़ ने पूरी बेबाक़ी के साथ कहा कि मुंबई हमले में गिरफ़्तार आतंकी अज़मल आमिर कसाब़ पाकिस्तान का ही वाशिंदा है। नवाज़ ने इसे लेकर पाकिस्तान के मौज़ूदा राष्ट्रपति आसिफ़ अली ज़रदारी पर भी सवाल उठाए कि वो हक़ीकत से मुँह मोड़ रहे हैं। उन्होंने ये भी कहा कि- इस वक्त देश ही हालत सही नहीं है और कहीं न कहीं इसके लिए वो ज़रदारी-गिलानी हूकूमत को इसका जिम्मेदार ठहराया। बहरहाल,मियां नवाज़ ने तो अपनी दिल की बात पूरी साफ़गोई से कह दी- और मंच बना पाकिस्तान का ज़ियो टेलीविज़न । नवाज़ के इस इंटरव्यू को कल पूरे दिन भारतीय टेलीविज़न न्यूज़ चैनलों ने खूब दिखाया और नवाज़ शरीफ़ के तारीफ़ में जम़कर क़सीदे पढ़े। कुछ ऐसा ही मिज़ाज अख़बारों का भी रहा। लेकिन, उनकी ये साफ़गोई पाकिस्तानी हुक्म़रानों को हज़म नहीं हो रहा। गिलानी सरकार में सूचना प्रसारण मंत्री शेरी रहमान ने नवाज़ के इस ब़यान की जम़कर निंदा की है। उनके मुताब़िक ऐसे ब़यान पाकिस्तान की एकता के लिए सही नहीं है। इसे लेकर लाहौर हाईकोर्ट ने ज़ियो टीवी और उसके पत्रकार हाम़िद म़ीर के खिलाफ़ देशद्रोह का म़ुकदमा क़ायम़ करने वाली याचिका मंज़ूर कर ली है। 

 फ़िलहाल ये कह पाना मुश्किल होगा कि कोर्ट इसपर क्या फ़ैसला सुनाती है। पिछले 26 नवंबर को मुंबई में हुए आतंकी हमलों के बाद भारत सहित दुनिया के ज्यादातर देशों ने पाकिस्तान को कटघरे में खड़ा किया। लेकिन पाकिस्तान अपनी हठधर्मिता से कत्तई बाज़ नहीं आया। उसकी तरफ़ से लगातार ये ब़यान दिया गया कि इन हमलों से उनका कोई सरोकार नहीं। ये बात किसी से नहीं छुपी है कि आज की तारीख़ में पाकिस्तान दहशतगर्दों का आरामगाह बना हुआ है। बावजूद इनपर नकेल कसने के वो रक्षात्मक मुद्रा अपना रहा है। अफ़सोस इस बात की है कि इन दहशतगर्दों ने पाकिस्तान को भी नहीं छोड़ा- भस्मासुर की तरह वहां की जम्हूरियत को निगलने के लिए वह आतुर है। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए बेनज़ीर भुट्टो की शहादत को.......कौन थे हत्यारे......शायद ये बात ज़नाब जरदारी भी जानते होंगे। ज़रदारी साहब सिर्फ़ संयुक्त राष्ट्रसंघ में शहीद भुट्टो की तस्व़ीर दिखाने से उनकी रूह को शांति नहीं मिलेगी। अगर कुछ करना ही है तो आरोपों से बचने का नुस्ख़ा छोड़ दहशतगर्दों की गर्दन पकड़िए.......क्योंकि इंतहापसंदी पाकिस्तान के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बन चुका है। मैं जियो टीवी के बेब़ाक पत्रकारिता का क़ायल हो गया हूँ- इसलिए नहीं कि उसने पाकिस्तानी हूक़ूम़त की असलिअत ज़गजाहिर की और भारत के दावों को मज़बूत किया। दरअसल, मैं तो कायल वहाँ के ज्यूडिश्यरी, वकील, मानवाधिकार कार्यकर्ता और खासकर उनमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने वाली महिलाओं का भी हूँ, जो समय-समय पर हूकूमत के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद की हैं। मुंबई में आतंकियों के खिलाफ़ चल रहे ऑपरेशन को हमारे देश के सभी समाचार चैनलों ने भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच की तरह सीधा प्रसारण दिखाया, वो भी अलग-अलग एंगिलों से। मीडिया के इस भूमिका को लेकर भी सवाल उठाए जा रहें है कि- उनकी ये बहादुरी किस हद तक ज़ायज थी। 

मीडिया जगत के प्रबुद्ध लोग इसपर रोज़ लिख रहे हैं। मुंबई की घटना ने आर्थिक मंदी के दौर में मीडिया को क़माई का अच्छा अवसर प्रदान किया। निचले पायदान पर पहुँच चुके कई चैनलों ने इस त्रासदी का सफल कवरेज़ कर अपने रैंकिंग में सुधार किया। अपनी पहचान को मोहताज़ कुछ नये चैनलों ने भी अपनी पहचान बनाने में कामयाब़ी हासिल की। लेकिन, उस भीड़ में पत्रकारिता की आत्मा एकबार फ़िर लहूलुहान हुई...जिसकी फ़िक्र शायद मौज़ूदा बाजारवाद में किसी को नहीं है। पाकिस्तान और भारत भले ही दो मुल्क है, लेकिन उनकी समस्याएँ भी कमोबेश एक जैसी हैं। इन सबसे लड़ने में दोनों देशों की मीडिया और सामाजिक कार्यकर्ता अहम क़िरदार निभा सकते हैं। भारत के मुकाबले पाकिस्तान में न्यूज़ चैनलों और अखबारों की संख्या कम है। साथ ही जितनी आजादी भारत में पत्रकार और पत्रकारिता को है उतना पाकिस्तान में नहीं है। बावजूद इसके जियो टीवी ने जो पहल की है- वह अनहद में गूँज जैसी ही है। हमारे देश की मीडिया को भी कुछ ऐसा ही करने की ज़रूरत है.
 

गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

जंग तो खुद एक मसला है......?

मुंबई में हुए फ़िदायीन हमलों के बाद एक बार फिर भारत और पाकिस्तान के रिश्ते तल्ख़ होते जा रहे हैं। ऐसे में सबसे ज़्यादा ग़मज़दा सरहद के दोनों तरफ़ वो लोग हैं,जो हर क़ीमत पर दोनों मुल्कों के दरम्यान अमन और विश्वास चाहते हैं। २६ नवंबर को मुंबई में हुए आतंकी हमलों में कई बेगुनाहों की जानें गईं- काफ़ी संख्या में लोग घायल भी हुए। मंबई में आतंकियों से मुकाब़ला करते हुए हमारे कई बहादुर अफ़सरों ने अपनी शहादत भी दी। जिसपर पूरे देश को गर्व है। अगर पिछले कुछ सालों का ज़ायजा लें तो देश में लगातार हुए आतंकी घटनाओं में कई हज़ार लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी। आख़िर क्या वजह है कि सरकार इन घटनाओं को रोक पाने में असमर्थ है........ इस वक्त समूचा देश इसी सवाल से जूझ रहा है। मौज़ूदा समय में आतंकवाद समूची दुनिया के लिए एक बड़ी समस्या है। दक्षिण-पूर्व एशिया में भारत और पाकिस्तान इस दहशतगर्दी के ज्यादा शिकार हैं। अक्सर जो होता रहा है- अगर धमाके पाकिस्तान के लाहौर या कराची में होते हैं तो पाकिस्तानी हुक्म़रानों का शक कहीं न कहीं भारत की तरफ़ होता है। कुछ ऐसा ही हिन्दुस्तान में होने वाले धमाकों के बाद होता है- शक की सुई पाकिस्तान की तरफ़ जाती है। बहुत हद तक इसमें सच्चाई भी है। लेकिन, अफ़सोस इस बात का है कि दोनों मुल्कों के सियासी लोगों ने आरोप-प्रत्यारोप को अपना राजनीतिक हथियार बना लिया है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि पाकिस्तान की कई सियासी पार्टियों की दुकान भारत विरोध पर ही टिकी है। कुछ हद तक भारत में भी कई राजनीतिक दल के लिए पाकिस्तान विरोध एक बढ़िया प्रोडक्ट साब़ित हो रहा है। मुंबई की घटना के बाद दोनों देशों के शीर्ष नेता एक बार फ़िर एक दूसरे पर इल्ज़ाम लगा रहे हैं। ऐसे में कुछ वर्षों से जारी शांति प्रकिया को नुकसान पहुँचने की संभावना प्रबल हो गई है। इन हालातों में कुछ आगे तक सोचें तो दोनों ओर से बढ़ता तनाव कहीं जंग में तब्दील हो जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
लेकिन, क्या जंग भारत और पाकिस्तान को दहशतगर्दी से निज़ात दिला पाएगा.....शायद ही इसका जबाब कोई हाँ में दे पाएगा। क्योंकि जंग तो खुद एक मसला है, ये किसी मसले का हल कैसे हो सकता है। दोनों मुल्कों के दरम्यान इससे पहले भी कई जंग हो चुके हैं....नतीज़ा क्या निकला सिवाए खून और तबाही के। हमें ये कत्तई नहीं भूलना चाहिए कि जंग की पृष्ठभूमि हूकूमत बंद कमरे में तैयार होती हैं-लेकिन तबाही का मंजर जंग के मैदान में दिखाई देता है। जंग खत्म तो जरूर होती है, लेकिन उसके घाव मुद्दत तक कायम रहते हैं। हक़ीकत यही है कि सियासतें नफ़रत बोती हैं और जंग काटती हैं।
कम से कम भारत और पाकिस्तान को तो जंग के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए...क्योंकि जंग ने इन दोनों मुल्कों को काफ़ी जख्म दिए हैं, जो अब तक नहीं भरे हैं। हम अमन के तलब़गार हैं, हम नफ़रत की सभी दीवार गिराना चाहते है......। क्योंकि तारीख और सरहदों ने हमें भले ही दो हिस्सों में बाँट दिया हो लेकिन, हमारी रवायत और ख्वाब एक जैसे हैं।

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

इंसानी लाशों पर राजनीति कबतक ?

26 नवंबर का दिन भारत समेत समूची दुनिया में एक ख़ौफ़नाक यादें छोड़कर चला गया। मायानगरी मुंबई को चंद दहशतगर्दों ने अपनी ज़द में लेकर तकरीब़न दो सौ ब़ेगुनाहों की जान ले ली। साठ घंटे तक चली सैन्य कार्रवाई के बाद आख़िरकार हमारे जांबाज़ सैनिकों ने पंचसितारा होटल ताज, ओबरॉय और नरीमन हाउस से दहशतगर्दों के कब्ज़े से बंधक बनाए गए लोगों को छुड़ाया। लेकिन, इसकी बड़ी क़ीमत हमें चुकानी पड़ी- एटीएस चीफ़ करकरे से लेकर मेज़र उन्नीकृष्णन समेत कई बहादुर सिपाही को अपनी शहादत देनी पड़ी। दैनिक अख़बार और बाकी मीडिया इस आतंकी हमले को देश में हुए अबतक का सबसे बड़ा हमला मानते हैं। इसबात से इन्कार भी नहीं किया जा सकता,क्योंकि ये पहली दफ़ा है- कि बड़ी संख्या में विदेशी नागरिक भी मारे गए। मुंबई के आतंकी हमलों की खबर को दुनिया के तमाम अख़बारों और मीडिया जगत ने प्रमुखता दी। अमेरिका सहित कई देशों ने भी ग़म के इस घड़ी में भारत के साथ सहानुभूति दिखाई और आतंकवाद को समूल नष्ट करने की अपनी वचनवद्धता दोहराई। लेकिन, इस बीच ब्रिटेन की एक संस्था ने एक सर्वे के तहत भारत को दुनिया का २० सबसे खतरनाक देश बताया। इस सर्वे पर किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए,क्योंकि पिछले कुछ सालों में देखें तो देशभर में जिस क़दर आतंकी हमले हो रहे हैं- उससे साफ़ जाहिर है कि यह देश भी धीरे-धीरे इराक और अफ़गानिस्तान होता जा रहा है। मुंबई में आतंकी हमलों के खिलाफ़ देश की सियासी पार्टियाँ और लीडरान ने एकजुटता दिखाई, लेकिन दुर्भाग्य से हमारा देश अमेरिका नही है- जिस तरह ९/११ के बाद अमेरिकी नेताओं ने आतंकवाद के खात्मे को लेकर एकजुटता दिखाई वह काब़िलेतारीफ़ ही नही बल्कि सही मायनों में राजनीतिक धर्म भी है। लेकिन मुंबई की घटना के चंद रोज़ के बाद ही देश की सियासी पार्टियाँ आरोप-प्रत्यारोप के अपने घिनौने खेल में एक बार फिर से मशरूफ़ हो गईं हैं।

आतंकी हमलों की नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने कल अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया। उनके इस्तीफ़े को रेलमंत्री लालू प्रसाद ने देर में लिया गया फ़ैसला बताया-जबकि बीजेपी ने इसे नौटंकी बताया। इस्तीफ़े का दौर यहीं खत्म नहीं हुआ.... आज सवेरे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख और राज्य के गृहमंत्री आर आर पाटिल ने भी अपना त्यागपत्र राज्यपाल को सौंप दिया। बावजूद इसके सियासत कम नहीं हो रही। कल ही केरल के मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन को ताज आपरेशन में शहीद हुए मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के पिता ने अपने घर में घुसने से मना करते हुए चेतावनी दी कि अगर कोई राजनेता उनके घर घड़ियाली आंसू बहाने आया तो वे खुदकशी कर लेंगे। देश में नेताओं पर से उठते भरोसे के लिए शायद ये संकेत काफी.....................है। हर हमलों के बाद नेताओं की तरफ़ से संवेदना, मुआवज़े और घटना की उच्चस्तरीय जाँच कराने की रस्मअदायगी से देश की जनता का भरोसा उठ चुका है। तभी तो घर कुत्तों को सम्मान तो है, लेकिन देश के नेताओं का नहीं। हमारे देश की राजनीति किस दिशा में आगे बढ़ रही है..............शायद मूल्यविहीनता की तरफ़............................

बुधवार, 23 जुलाई 2008

प्रभाष जोशी को शलाका सम्मान
कल यानि २२

सोमवार, 14 जुलाई 2008

हमारे अखिलेश भैया

कहानी अखिलेश मिश्रा की है। किसी बड़े मल्टिनेशनल में साफ्टवेयर इंजीनियर हैं। जन्म, शिक्षा सब बिहार में हुई है। दिल्ली में नौकरी करते हैं। दफ्तर से बाहर आते ही दिल-दिमाग पटना के गांधी मैदान का चक्कड़ मारने लगता है। अखिलेश काफी कार्यकुशल थे। समस्या सिर्फ़ एक थी। बॉस को लगता था कि अखिलेश गप्पी नंबर वन है। जब देखा डिंग मारता रहता है। मैं इसे जानता हूं...उसे जानता हूं। बाकौल अखिलेश, अक्षय कुमार से लेकर प्राधानमंत्री तक सब उसे जानते हैं। बेचारे बदनाम हो गए थे। एक दिन बॉस ने अखिलेश को अपने चैंबर में बुलाया। "क्यों अखिलेश, राहुल गाँधी से तुम्हारा परिचय है क्या?" स्योर सर- अखिलेश बोला। "मैं और राहुल तो कॉलेज के दिनों से ही एक दूसरे को जानते हैं।" अच्छा, मिलवा सकते हो??? जी, जब आप चाहें। बॉस को साथ लेकर अखिलेश 10 जनपथ पहुंच जाता है। राहुल गाँधी किसी मीटिंग में व्यस्त थे। अचानक अखिलेश पर उनकी नज़र गई तो उछल पड़े। "अरे अक्खी तुम..! कैसे आए, कुछ विशेष काम है क्या? नहीं यार, बस इधर से गुज़र रहा था, सोचा तुम से मिलता चलूं। आओ साथ में खाना खाते हैं...। बॉस अखिलेश से प्रभावित हुआ। लेकिन उसके दिमाग में अभी भी संशय था। 10 जनपथ से बाहर आने के बाद बॉस ने अखिलेश से कहा...यह महज संयोग था कि राहुल गाँधी तुम्हें जानते हैं। अरे नहीं बॉस मुझे सब जानते हैं। यह कोई संयोग-वंयोग नहीं था। किससे मिलना चाहते हैं- बताईये तो। जार्ज बुश.....जार्ज बुश से मिलवाओ तो मानें। अरे, यह कौन सी बड़ी बात है, अखिलेश ने कहा। चलिए वाशिंगटन चलते हैं। दोनों वाह्ईट हाउस पहुंच जाते हैं। उस वक्त जार्ज बुश अपने काफीले के साथ कहीं निकल रहे थे। अचानक उनकी नज़र अखिलेश मिश्रा पर चली जाती है। बुश का काफिला रुक जाता है। आखिल्स.......! व्हाट अ सरप्राईज़। मैं एक जरूरी मीटिंग के लिए निकल रहा था। तभी तुम और तुंम्हारे दोस्त नज़र आ गए। लेट्स हैव अ कप ऑफ टी आर कॉफी। बॉस चक्कड़ में पड़ जाता है। लेकिन शक का कीड़ा अभी भी उसे सता रहा था। बॉस ने कहा, चलो मान गए। लेकिन ये असंभव है कि तुम्हें सब जानते होंगे। अरे, अब भी कोई शक है आपको....!!!! हाँ, क्या तुम मुझे पोप से मिलवा सकते हो??? कुछ सोचते हुए अखिलेश ने कहा, ठीक है सर। लेकिन उसके लिए रोम चलना होगा। और दोनों रोम के वैटिकन स्कावयर पहुंच जाते हैं। वहाँ श्रद्धालुओं की पहले से ही काफ़ी भीड़ थी। "ऐसे नहीं होगा", अखिलेश ने बॉस से कहा। आप यहीं ठहरिए। पोप के गार्ड मुझे पहचानते हैं। मैं उपर जाता हूं और पोप के साथ बालकोनी में आउंगा। वहाँ आप मुझे पोप के साथ देख लेना। यह कह कर अखिलेश भीड़ में गुम हो गया। ठीक आधे घंटे के बाद अखिलेश मिश्रा पोप के साथ बालकोनी में प्रकट होता है। लेकिन वहाँ से लौटने के बाद यह देखता है कि उसके बॉस का इलाज डाक्टर डाक्टर लगे हैं। बॉस को माईल्ड हार्ट एटैक आया था। बॉस के स्थिति में सुधार होते ही अखिलेश ने उनसे पूछा- क्या हो गया था आपको? जब तुम और पोप बालकोनी में आए तब तक तो सब ठीक ही था। लेकिन तभी मेरे बगल में खड़ा एक व्यक्ति नें कहा - "ये अखिलेश मिश्रा के साथ बालकोनी में कौन खड़ा है"???

रविवार, 13 जुलाई 2008

नाच

एक जाने माने संगीतकार थे। उन्हें अजीब सा शगल था, तन्हाई में जाकर तबला बजाना। एक बार वे देखते हैं कि जैसे ही उन्होंने जंगल में तबला बजाना शुरु किया, तबले की आवाज सुनकर बकरी का एक नन्हा बच्चा दौड़कर आ गया। जैसे जैसे संगीतकार तबला बजाते , वह कूद कूदकर नाचता जाता। फिर तो जैसे यह रोज का क्रम हो गया। संगीतकार का एकांत में तबला बजाना और मेमने का संगीत की लहरियों में खोकर नाचना। एक दिन उस तबला वादक से नहीं रहा गया, उसने मेंमने से पूछा, क्या तुम पिछले जन्म के कोई संगीतकार हो या संगीत के मर्मज्ञ, जो शास्त्रीय संगीत का इतना गहरा ज्ञान रखते हो। तुम्हें मेरी रागों की पेचीदीगियां कैसे समझ में आती हैं
उस मेमने ने कहा , आपके तबले पर  मेरी मां का चमड़ा मढ़ा है। जब भी इसमें से ध्वनि बहती है, मुझे लगता है कि मेरी मॉं प्यार और दुलार से मुझे बुला रही है और मै खुशी से नांचने लगता हूं।
निदा फाजली की एक पंक्ति है-
मैं रोया परदेस में , भीगा मां का प्यार
दुख ने दुख से बात की, बिन चिठ्ठी बिन तार

शनिवार, 12 जुलाई 2008

बहन मायावती का सामंती चेहरा

सर्वजन हिताय,सर्वजन सुखाय की झंडाबरदार सुश्री मायावती मुख्यमंत्री उत्तरप्रदेश ने कल यानि १२ जुलाई ०८ को

दिल्ली के पंचसितारा होटल ओबरॉय में मीडिया से मुखातिब हुईं !मसला था अपने ऊपर सीबीआई का बढ़ता दबाब ! बहन जी ने लगभग १ घंटे तक चले प्रेस वार्ता में पत्रकारों को यह बताया कि किस कदर केन्द्र के इशारे पर सीबीआई का ग़लत इस्तेमाल उन्हें फसाने और उनकी पार्टी को बदनाम करने कि कोशिश समाजवादी पार्टी और कांग्रेस कर रही है !दरअसल,आय से अधिक सम्पति के मामले में मायावती पर मामला चल रहा है !उनका कहना था कि केन्द्र से समर्थन वापसी के बाद सरकार कि यह बदले कि कारवाई है !बहरहाल,इस बात में सच्चाई जो हो लेकिन ओबरॉय होटल में उनकी प्रेस वार्ता के बारे में आप क्या कहेंगे !

कोंफ्रेंस में तमाम इलेक्ट्रोनिक मीडिया और प्रिंट के पत्रकार बंधु मौजूद थे !यह कार्य कर्म टेलीविजन पर लाइव चल रहा था!सभी पत्र कारों के लिए बहन जी ने पंचसितारा होटल में दोपहर के लजीज व्यंजन का प्रवंध कर रखा था !एक बात जो मैंने महसूस किया कि बहन जी कि पार्टी बहुजन समाज कि बात करती है ,लेकिन उनका तामझाम एक सामंती चरित्र वाली पार्टियों जैसा ही था !

क्या बहन जी देल्ही में अपने पार्टी मुख्यालय या उत्तर प्रदेश भवन में संवाददाता सम्मलेन नही कर सकती थी क्या -------

क्या ओबरॉय जैसे महंगे होटल में ही वे अपने को सहज महसूस करती हैं .....................

यह सलाह सिर्फ़ कुमारी मायावती जी को ही नही है ऐसे सभी दलों को है जो पंचसितारा संस्कृति को बधाबा देते हैं

बुधवार, 9 जुलाई 2008

हमारी राजनीती .............

अब हमारी राजनीती की परिभाषा

बदल गई है

हमारी राजनीती जिसमे टिके रहने के लिए

आदर्शो,सिधान्तो की नही -

जरुरत है दो चार लाशों की

क्योंकि,हमारी राजनीती हो गई है नेताओं की लाश निति

अब फिक्र जनतंत्र की नही -

अब भय जनता -जनार्दन की नही-

धन ,बल और अपराध से अर्धमुर्चित हो गई

हमारी राजनीती .........

सोमवार, 7 जुलाई 2008

काफी समय बाद मैं अपने ब्लॉग में कुछ जोर रहा हूँ,पाठक गण इस लंबे अन्तराल के बारे में बहुत कुछ सोच सकते हैं.उन्हें सोचने की पुरी आज़ादी है ,बहरहाल अपनी तरफ़ से मैं सिर्फ़ इतना कहूँगा की .........................
एक मौका तो दीजए जनाब .पिछले हफ्ते मै और मेरे पत्रकार मित्र पंकज दिल्ली में भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद् की तरफ़ से आयोजित सूफी संगीत के कार्यकर्म में गए हुए थे .इस कार्यकर्म में पाकिस्तान में मशहूर सूफी कव्वाल साबरी ब्रदर्स ने अपने सूफियाने अंदाज़ में श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया .दरअसल मैं और पंकज गजलो और सूफी संगीत के खास कद्रदानों में से हैं .हम दोनों का मानना है की हिंदुस्तान और पाकिस्तान के दरमयान जो करवाहट है ,उसे दूर करने में मौसिकी खासी भूमिका अदा कर सकती है!हमारा मानना है की हिंदुस्तान और पाकिस्तान को और करीब आना चाहये , क्योंकि दोनों मुल्को के बीच दोस्ती दोनों मुल्को की आवाम चाहती है,किसी शायर ने ठीक ही फ़रमाया "जंग तो ख़ुद एक मसला है,यह किसी मसले का हल कैसे हो सकता है"..................
एक जैसी तहजीब ,एक जैसी रवायत बाबजूद इसके इतनी गहरी दूरियां ।
लेकिन,हम जैसी सोच हमारे हिंदुस्तान मैं बहुत सारे नौजवानों की होगी ,पाकिस्तान में भी नई पीढी की सोच कुछ इसी तरह की होगी .उपरवाले ने दोनों देसों को बेशुमार सलाहयत दी है ,क्या हम उनका इस्तेमाल आवाम की बेहतरी के लिए नही कर सकते!क्या सियासत हमारी जज्बातों पर इतना हावी हो चुका है की हमारे सियासतदान दोनों मुल्कों की जनता को करीब नही आने देना चाहते!
लेकिन,हम करीब आयेगे जरूर आयेंगे ..........................................

शनिवार, 15 मार्च 2008

अपनी बात

मित्रो ,आप सभी को आप का साथी अभिषेक रंजन सिंह का क्रांतिकारी सलाम ।मैंने कभी सोचा भी न था की ख़ुद की जज्बातों को जाहिर करने के लिए ब्लॉग का सहारा लेना पड़ेगा। कल तक मैं अपनी भावनाओं को बयक्क्त करने के लिए कागजो का सहारा लेता था,लेकिन भारतीय जनसंचार संस्थान ,जिसमे मेरी
आत्मा बसती है। यहाँ आने के बाद तमाम नई चीजो से रु- ब-रु हुआ उसमे से एक ब्लॉग लेखन भी था। संस्थान
मे मेरे कई मित्रों ने ब्लॉग लेखन के जरिये अपनी अभिब्यक्ति को नया आयाम दिया। मैंने भी फैसला किया की ख़ुद भी एक ब्लॉग तामीर करना चाहिए। 'संवेदना 'मेरे ब्लॉग का नाम है। यह ब्लॉग साहित्य,पत्रकारिता,कला और संस्कृति को समर्पित है। साथ ही साथ इसमे देश,काल,और परिस्थिति के प्रति भी आग्रह होगा।
अंत मे मैं अपने गुरु आनंद प्रधान,अनिल चमडिया और लाल बहादुर सर के प्रति आभार प्रकट करता हूँ,जिनकी
प्रेरणा से मैं 'दो शब्द' लिख पाया हूँ।

गुरुवार, 24 जनवरी 2008