रविवार, 21 दिसंबर 2008

जनमाध्यमों से ग़ायब़ हो रहे आम आदमी

पचास के दशक में विमल रॉय निर्देशित दो बीघा ज़मीन का एक गाना- धरती कहे पुकार के ............बार- बार इस फ़िल्म को देखने को मज़बूर करता है। जब भी इस फ़िल्म को देखता हूँ, तो कुछ नयापन दिखाई देता है। कुछ ऐसी ही बात फ़िल्म मदर इंडिया के साथ है। जिसे देखकर उसके पात्र अपने लगने लगते हैं, या खुद को उनके क़रीब पाता हूँ। कभी- कभी सोचता हूँ उन निर्देशकों के बारे में जिन्हें समय और समाज के नब्ज़ की अच्छी समझ थी। दो बीघा ज़मीन की गिनती उस ज़माने की ब़ेहतरीन फ़िल्मों में की जाती है। फ़िल्म की कहानी बंगाल में आए भीषण अकाल के षृष्ठभूमि पर आधारित थी- साथ ही उस दौर की ज़मीदारी व्यवस्था की नग्न हक़ीकत को उजागर करने वाली थी। शायद, यही वज़ह था- कि इसे कॉन फ़िल्म महोत्सव में पुरस्कृत किया। दो बीघा ज़मीन और मदर इंडिया को बने पचपन-छप्पन बरस होने चले हैं- उस ज़माने की तुलना में आज की फ़िल्मी दुनिया कहीं आगे निकल चुकी है।

 जनमाध्यमों में फ़िल्मों की अहम़ियत कहीं ज्यादा है- क्योंकि यह लोगों पर सीधा असर डालती है। फ़िल्मों के अलावे अख़बार, रेडियो, टेलीविज़न भी जनमाध्यम का ज़रिया है। इनका भी समय और समाज पर अच्छा ख़ासा असर है। भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में अख़बार का वज़ूद पिछले डेढ़-दो सौ सालों से है। इलेक्ट्रॉनिक माध्यम में रेडियो सबसे पहले आया- लेकिन टेलीविज़न न्यूज़ चैनल को ज्यादा वक्त नहीं हुआ है। अभी ये अपनी तरूणाई पर है – लेकिन आज हर तरफ़ इसी की चर्चा है।
भारत में टेलीविज़न पर समाचार अस्सी के दशक में दूरदर्शन ने शुरू किया था। अधेड़ उम्र के समाचार वाचक धड़ाधड़ देश- दुनिया के समाचार पढ़ रहे होते थे। और अंत में मौसम का हाल सुनाकर वो दर्शकों से इज़ाज़त लेते थे। नब्बे के दशक में समाचार पर दूरदर्शन के एकाधिकार को सबसे पहले चुनौती दिया – टीवी टुडे ग्रुप के आजतक ने, और यहीं से शुरू हुआ निज़ी टेलीविज़न न्यूज़ चैनलों की कहानी। वैसे तो मैं रेडियो का प्रिय श्रोता रहा हूँ – बीबीसी हिंदी सेवा से लेकर वॉयस ऑफ़ अमेरिका, रेडियो डॉयचे वेले और रेडियो चाइना इंटरनेशनल कॉलेज के दिनों में खूब सुना करता था। देश में कोई भी बड़ी घटना होने पर सुबह गाँव के संज़ीदा लोग मुझसे पूछा करते थे – कि ये ख़बर बीबीसी ने कही है। यानि एक तरह से ख़बरों की कसौटी बीबीसी ही तय करता था। आज भी गाँवों और छोटे शहरों में रहने वाले लाखों लोग बीबीसी सुनना पसंद करते हैं। टेलीविज़न में आज तक की विश्वसनीयता भी कुछ इसी तरह की थी। ख़ब़रें वही जो आज तक ने कही – ये वाक्य बीज मंत्र हुआ करता था। देश- दुनिया से लेकर आम आदमी की बातें आजतक में हुआ करती थी। 2000 के दशक में ख़बरों की दुनिया में आजतक ही अकेला नहीं रह गया – कई सारे प्राईवेट न्यूज़ चैनलों ने ख़बरों की दुनिया में दस्तक दी। पहले गिनती के लिहाज़ से उनका नाम याद था – लेकिन अब वे गिनती से बाहर हैं। चौबीसों घंटे वाली ख़बरिया चैनलों की देखते ही देखते बाढ़ आ गई। आज ज़बकि चैनलों की भरमार है – चौबीसों घंटे जनसेवा को ये तैयार हैं। लेकिन जनसरोकार की ख़बरे लगातार ग़ायब हो रही हैं।
 आज न्यूज़ चैनलों पर अमिताभ बच्चन का सिद्धिविनायक मंदिर पैदल जाना और उनके पैरों में पड़े छाले ख़बरों की शक्ल अख़्तियार कर लेते हैं। सलमान खान ने जेल में लौकी की सब्जी और चार रोटियाँ खाई – ये इनसाइड स्टोरी बन जाती है। संजय दत्त को हवालात में नींद नहीं आई – इस पर पैनल डिस्कशन किया जाता है। लेकिन उसी दिन बिहार में दलितों के घर आग लगाई जाती है, उड़ीसा में आदिवासी महिला के साथ सामूहिक बलात्कार किया जाता है - ये ख़बर नहीं बन पाती है।


आज के खबरिया चैनल टू –इन –वन नहीं बल्कि मल्टी – इन –वन हो गए हैं। आज न्यूज़ वालों के लिए सिर्फ़ राखी सावंत ही नहीं हैं। इनकी कृपा से एंकात में रहने वाले साधु-सन्यासी भी छोटे पर्दे पर चमक रहे हैं। इतना ही नहीं चंबलों और बीहड़ों में रहने वाले डकैत भी अब बदले कलेवर और नए संस्करण में छोटे पर्दे पर जनसंवाद और परिचर्चा करते नज़र आते हैं। इनकी महिमा ने तो भूत- प्रेतों से लेकर सांप- बिच्छू तक को ग्लोबल बना दिया है। अक्सर गाँव के चौपालों पर चुटकुले सुनाने वालों का भी खूब वारे-न्यारे किए इन चैनलों ने। कभी रामखेलावन, मंगरू और गोपी को हँसाने वाले अब चमचमाते स्टेज़ पर सुंदर- चिकने चेहरों को हँसाने लगे हैं। न्यूज़ चैनलों का योगदान यहीं ख़त्म नहीं होता – घर के झगड़े और सास- बहू के लफ़डों को भी इन्होंने मंच दिया है। लेकिन इस भीड़ में वो लोग और चेहरे कहीं नज़र नहीं आते, उनकी समस्याएँ कहीं नहीं दिखती- जिनकी आवाज़ बुलंद करने का भरोसा दिया था इन्होंने।


आख़िर इसे टीआरपी का तिलिस्म कहें या ख़बरों की दुनिया में बैठे पत्रकारिता के दुश्मन – जो आठ करोड़ की आबादी वाले चार महानगरों की पसंद और नापसंद को देश की सौ करोड़ की आबादी पर ज़बरन थोप रहे हैं। म़ौजूदा टीवी सीरियलों की बात करें तो – उसकी कहानी कुछ और ही बयां करती है। टेलीविज़न पर दिखने वाले ज्यादातर धारावाहिकों में अति उच्च संभ्रांत परिवारों की कहानी होती है। लगभग सभी सीरियल महिला प्रधान हो गई हैं – सबसे ख़ास बात ये है कि ये महिलाएँ लाचार नहीं हैं.... ये चतुर और षड्यंत्र रचती नज़र आती हैं। धनकुबेर महिलाएँ, सिगरेट के धुँए उड़ाती महिलाएँ। यहाँ भी आम महिलाओं की कहानी कहीं नज़र नहीं आती क्या यही हक़ीकत है इस देश की. क्या यही दशा है देशभर में महिलाओं की जो इन सीरियलों में दिखता है। कहने में अतिश्योक्ति नहीं कि मौज़ूदा जनमाध्यम हक़ीकत दिखाने की कोशिश में नहीं, बल्कि हक़ीकत छिपाने की क़वायद में में लगा हुआ है।

कुछ बात महानगरों में अति लोकप्रिय एफ़एम रेडियो की करें – इनकी दुनिया तो अज़ब ही है। देश में कुछ भी हो जाए, ये हमेशा खुश और श्रोताओं को गुदगुदाते रहते हैं। मुझे अच्छी तरह से याद है – जब देश के प्रधानमंत्री राजीव गांधी की मौत हुई थी। देशभर में सात दिनों का राष्ट्रीय शोक घोषित किया गया। टेलीविज़न और रेडियो पर कोई मनोरंजक कार्यक्रम इस अवधि में नहीं चलाए गए। लेकिन एफ़एम संस्कृति ने तो ग़म और शोक की परिभाषा ही उलट दिया। हाल की घटना है 26 नवंबर को मुंबई में आतंकी हमला हुआ और उसी दिन देश के पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह का निधन हुआ था। मैं घर और दफ़्तर के बीच रास्ते में था – मैंने रेडियो पर समाचार सुनने के लिए अपने मोबाइल पर एफएम ट्यून किया। मैं दंग रह गया कि सभी प्राइवेट एफएम स्टेशनों पर श्रोताओं को उनके मनपसंद गाने और बीच-बीच में अंग्रेज़ी-हिंदी मिश्रित हँसी मज़ाक का दौर चल रहा है। उन्हें जैसे पता ही नहीं कि देश में हालात क्या है. इसे क्या कहेंगे आप राष्ट्रीय शोक या राष्ट्रीय उत्सव...। इसे देखकर किसका राज कहेंगे आप सरकार का या कॉरपरेट जगत का। क्यों नहीं सज़ा मिलती इन्हें – क्या देश का कानून मानने और सज़ा भुगतने का हक़ सिर्फ आम आदमी को ही है।

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