बुधवार, 7 मई 2014

असम के गुनगहार


असम के कोकराझार, बक्सा और चिरांग जिले में पिछले दिनों हुई सांप्रदायिक हिंसा सत्तारूढ़ तरुण गोगोई सरकार की एक बड़ी नाकामी है। आधिकारिक तौर पर इस हिंसा में अड़तीस लोगों की मौत हुई है, जिसमें बच्चे और औरतें भी शामिल हैं, लेकिन गैर सरकारी आंकड़े मृतकों की संख्या इससे कहीं ज्यादा बता रहे हैं, क्योंकि जंगलों और तालाबों से शवों के मिलने का सिलसिला अब भी जारी है। सरकार, मीडिया और खुफिया एजेंसियों के मुताबिक, यह हिंसा चुनावी रंजिश का नतीजा है, क्योंकि कोकराझार संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) के उम्मीदवार को गैर बोडो यानी बंगाली हिंदू, कोच राजवंशी और बांग्लाभाषी मुसलमानों ने वोट नहीं दिया। इसके बरअक्स निर्दलीय चुनाव लड़ रहे उल्फा के एक पूर्व कमांडर के पक्ष में इन लोगों ने जमकर मतदान किया। सिर्फ इसे हिंसा की एकमात्र वजह कहना शायद जल्दबाजी होगी, क्योंकि एके 47 जैसे स्वचालित हथियारों से लैस हमलावरों ने जिस तरह गांवों पर हमला किया, उससे साबित होता है कि यह हमला पूर्व नियोजित था। एनडीएफबी (संगबिजित गुट) के इनकार के बावजूद, उसे इस हमले के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। इसके पीछे दो कारण हैं। पहला कारण इस संगठन का शांति वार्ता को लेकर अड़ियल रुख और दूसरा कारण उल्फा के साथ इसका मतभेद। एनडीएफबी (एस) केंद्र सरकार के साथ शांति वार्ता के सख्त खिलाफ है, जबकि एनडीएफबी (रंजन दैमारी गुट) इन दिनों शांति प्रक्रिया में शामिल है। एनडीए सरकार के समय वर्ष 2003 में नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (एनडीएफबी) से हुए समझौते के बाद बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद (बीटीसी) वजूद में आया। समझौते के तहत कोकराझार, बक्सा, उदालगुड़ी और चिरांग जिलों को मिलाकर बोडोलैंड क्षेत्रीय स्वायत्त जिला (बीटीएडी) का गठन किया गया था। बीटीसी पर फिलहाल बोडो पीपुल्स फ्रंट का कब्जा है, जो असम की गोगोई सरकार में भी शामिल है।
      
असम की ताजा हिंसा मुसलमानों और बोडो उग्रवादियों के बीच जारी तनाव का नतीजा है। दोनों समुदायों के बीच यह रंजिश वर्षों पुरानी है। असम पिछले कई दशकों से अनेकों बार सांप्रदायिक और जातीय हिंसा की आग में झुलस चुका है। राज्य के बोडो बहुल जिन इलाकों में हालिया हिंसा हुई है, वहां दो साल पहले भी बोडो जनजाति और मुसलमानों के बीच फसाद हो चुके हैं। उस हिंसा में भी करीब सवा सौ लोगों की जानें गई थी और तकरीबन चार लाख से अधिक लोग बेघर हुए थे। उस समय विपक्षी पार्टियों के शोर-शराबे के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने असम के हिंसा प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया था, लेकिन इस बार प्रधानमंत्री का हिंसा प्रभावित इलाकों में जाना तो दूर, उन्होंने अपनी जुबान से पीड़ितों के लिए हमदर्दी के दो शब्द भी नहीं बोले। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को असम जाना चाहिए, क्योंकि वह इसी सूबे से राज्यसभा के सदस्य हैं। पिछले दस वर्षों से वह देश के प्रधानमंत्री हैं और राज्यसभा में असम का प्रतिनिधित्व भी कर रहे हैं। यह राज्य गरीबी, बेरोजगारी और उग्रवाद की समस्या से ग्रस्त है, बावजूद इसके प्रधानमंत्री ने असम की बेहतरी के लिए कोई ऐसा काम नहीं किया, जिसे वहां की जनता याद रख सके।
असम में जिस बांग्लादेशी मुसलमानों की मौजूदगी के सवाल पर शोर मचाया जाता है, वह अर्द्ध सत्य है। असम में बांग्लाभाषी मुसलमानों को वर्ष 1826 में ब्रिटिश सरकार की पहल पर एकीकृत बंगाल से राज्य के कोकराझार, बक्सा, नलबाड़ी, बारपेटा, चिरांग, नौगांव और तिनसुकिया जिलों में बसाया गया था। असम में कृषि कार्य को बढ़ावा देने और बंगाल में जनदबाव कम करने के लिए अंग्रेजों ने ऐसा किया था। बांग्लाभाषी मुसलमान कई पीढ़ियों से असम में निवास कर रहे हैं। गुवाहाटी स्थित बोर्ड ऑफ रेवेन्यु कार्यालय और संबंधित जिला भू-अभिलेखागारों में भी इससे संबंधित कागजात देखे जा सकते हैं। तमाम दस्तावेजी प्रमाण उपलब्ध होने के बावजूद पिछले 188 वर्षों से बोडो बहुल कोकराझार, बक्सा और चिरांग जिले में रहने वाले इन लोगों को आज भी हिंदुस्तानी होने का सबूत देना पड़ रहा है और समय-समय पर उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ रही है। गौरतलब है कि वर्ष 1826 से लेकर वर्ष 1953 तक असम में बांग्लाभाषी मुसलमान, बोडो जनजाति और हिंदू आपसी सामंजस्य बनाकर रहे। 

उनके बीच धर्म और भाषा को लेकर कभी कोई समस्या पैदा नहीं हुई, लेकिन वर्ष 1954 के बाद हालात बदलने लगे और इन इलाकों में बांग्लाभाषी मुसलमानों को शक की नजर से देखा जाने लगा। मसलन, हर छोटी-छोटी बातों को तूल देना आम बात हो गई। नतीजतन आपसी नोंक-झोंक बाद के दिनों में खूनी संघर्ष में तब्दील होने लगा। वर्ष 1983 में तत्कालीन नौगांव जिले की नेल्ली में हुई सांप्रदायिक हिंसा इसका उदाहरण है। इस फसाद में लगभग 5000 मुसलमानों की हत्या कर दी गई थी। दोनों समुदायों के बीच अविश्वास का यह सिलसिला देश की आजादी के ठीक बाद शुरू हो गया था। असम से सटा, जो भू-भाग कभी पूर्वी बंगाल कहलाता था, विभाजन के बाद वह पूर्वी पाकिस्तान हो गया। आर्थिक रूप से संपन्न मुसलमान एवं हिंदू कोलकाता और दिल्ली समेत अन्य शहरों में बस गए, लेकिन गरीब मुसलमान और हिंदू पूर्वी पाकिस्तान की सीमा से सटे पश्चिम बंगाल और असम के ग्रामीण इलाकों में आकर रहने लगे। 25 मार्च, 1971 को बांग्लादेश कायम होने के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और बांग्लादेश के राष्ट्रपति शेख मुजीबुर्रहमान के बीच 1972 में एक समझौता हुआ, जिसके तहत वर्ष 1971 से पहले सीमा पार जाने वाले सभी अप्रवासियों को गैर बांग्लादेशी घोषित किया गया।
  हालांकि बीते तैंतालीस वर्षों में बांग्लादेश से लाखों लोग भारत आए। इनमें हिंदुओं से कहीं अधिक संख्या मुसलमानों की है। असम और पश्चिम बंगाल की सरकारों के लिए शुरूआत में घुसपैठ एक बड़ी समस्या थी, लेकिन बाद में यही समस्या उनके लिए राजनीतिक संजीवनी बन गई। एक ओर जहां मुस्लिम विस्थापितों के मुद्दे पर असम में धरना-प्रदर्शन होने लगा, वहीं हिंदू विस्थापितों के साथ सहानुभूति प्रकट की जाने लगी। इस दोहरे रवैये की वजह से घुसपैठ की समस्या और उसकी  निष्पक्षता सवालों के घेरे में आ गई। अस्सी के दशक में ऑल असम स्टूडेंट यूनियन के आंदोलन के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1983 में आईएमडीटी एक्ट लागू किया था, लेकिन बाद इसमें खामियां दिखने लगी। नतीजतन वर्ष 2005 में उच्चतम न्यायालय ने एक याचिका की सुनवाई करते हुए इस कानून को निरस्त कर दिया। दरअसल, इस कानून का मुख्य उद्देश्य वर्ष 1971 के बाद असम में गैर कानूनी ढंग से बसे बांग्लादेशी नागरिकों की पहचान कर, उन्हें वापस उनके देश भेजना था। लेकिन आंकड़े बताते हैं कि इस कानून के तहत सिर्फ दस हजार लोगों को ही चिन्हित किया जा सका। उन दिनों असम में इसे लेकर वोट बैंक की राजनीति भी शुरू हो गई थी। बांग्लादेशी नागरिकों को वापस भेजा जाए या नहीं, इस पर सियासी पार्टियों में तलवारें खिंच गई। गौरतलब है कि बांग्लादेशी नागरिकों को राज्य से बाहर निकालने के सवाल पर सत्ता हासिल करने वाली असम गण परिषद भी बाद में अपनी इस मांग से पीछे हट गई। आईएमडीटी एक्ट का जो हश्र हुआ, उसकी मिसाल शायद ढूंढने से भी नहीं मिलेगी। बहरहाल, असम में यह हिंसा उस वक्त हुई है, जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी विदाई की घड़ियां गिन रहे हैं। अपने कार्यकाल के शेष दिनों में उन्हें अशांत असम देखना पड़ेगा, इसकी कल्पना प्रधानमंत्री ने स्वयं नहीं की होगी।


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