शुक्रवार, 9 जनवरी 2009

लोकतंत्र में राजतंत्र की माया


उत्तर प्रदेश सूबे की मुखिया मायावती के जन्मदिन की तैयारियां ज़ोरों पर थी- जिसे लेकर उनकी पार्टी और समर्थकों के बीच ज़बर्दस्त उत्साह था। इस शाही जन्मदिन के नाम पर प्रदेश भर में चंदा वसूली अभियान चलाया जा रहा था, हालांकि इस वसूली को सियासी नाम दिया गया स्वैच्छिक अंशदान....। लेकिन एन वक्त पर औरैया के एक पीडब्ल्यूडी इंजीनियर ने सारा गुड़ गोबर कर दिया। उसने बहन जी के वफ़ादार विधायक जी को चंदा देने से इंकार कर दिया। नतीज़तन उस जिद्दी इंजीनियर को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। बेचारे खुद तो गए मगर जाते-जाते बहन जी के यौमे-पैदाइश को बुरी नज़र लगा गए।
इंजीनियर की हत्या के बाद प्रदेश के विपक्षी पार्टियां और राजनीतिक वनवास झेल रहे नेताओं को मायावती पर हमला बोलने का बे़हतरीन मौका दे दिया। इस सब के बावज़ूद आज सवाल ये है कि- मौजूदा राजनीति से आम आदमी इतना भयभीत क्यों है। औरैया की घटना पर राजनीतिक बयानबाजी तो बहुतों ने की, लेकिन उस रोग के बारे में कोई क्यों नहीं बोल रहा जो धीरे-धीरे देश की राजनीति को ग्रसित करती जा रही है। भारत में राजतंत्र गुज़रे जमाने की बात हो चुकी है, लेकिन उसका अक्स आज़ भी दलीय राजनीति और नेताओं के सार्वजनिक जीवन में देखने को मिलता है।

राजनीति और राजनेताओं के फ़ेहरिस्त में मायावती एकलौती नहीं है- जिन्होंने पद पर रहते हुए शाही संस्कृति को बढ़ावा ना दिया हो। इससे पहले भी लखनऊ में पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन पर लाल जी टंडन द्वारा साड़ी बाँटने के कारण मची भगदड़ में गरीब़ औरतों की मौतें हुईं। कुछ दिनों तक हंगामा हुआ, राजनीतिक पार्टियों ने आरोप-प्रत्यारोप के खेल खेले फ़िर मुर्दे की तरह मामला भी हमेशा के लिए शांत हो गया।
लोकतंत्र में असीम शक्ति होती है- तभी तो कोई राजनेता अपनी बिटिया की शादी में शो-रूम से महँगी कारे जब़रन उठवा लेते है। तो किसी राजनेता के यहाँ बारात हेलीकॉप्टर के ज़रिए पहुँचती है। इन दिनों राजनेताओं को रैली में स्वर्ण मुकुट पहनाने, चांदी की तलवार और गदा भेंट करने, सिक्कों और लड्डुओं से तौलने की परिपाटी ज़ोरों पर है। जिसे देखकर राजाओं और नबावों की छवि ज़ेहन में उतरने लगती है।
कुछ दशकों से देश में जातिगत सम्मेलन और रैलियों की बाढ़ आई हुई है। हर जाति और उपजाति स्तर पर संगठनों का गठन किया गया है। कुछ राजनीतिक पार्टियों को छोड़ दिया जाए तो राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियाँ इनमें खूब रूचि ले रहे हैं और इनके नेता इन्हें अपना समर्थन भी दे रहे हैं। अफ़सोस इस बात की ये है कि देश में सांप्रदायिकता के नाम पर खूब शोर मचाया जाता है, लेकिन जातिगत आधार पर हो रही राजनीति को मौन स्वीकृति दे दी गई है। वज़ह भी साफ़ है कि कई क्षेत्रीय पार्टियों को संजीवनी इन्हीं जातिगत राजनीति से ही मिलती है।
हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि सांप्रदायिक विद्वेष से कहीं खतरनाक जातिगत भावना है। सांप्रदायिकता की आग तो कभी-कभार धधकती है, लेकिन जातिगत नफ़रतों की आग समाज और देश को जलाने का काम करती है। राजनीति बगैर उच्च आदर्शों और विचारो के बिना निर्जीव है। नेता जनता के प्रतिनिधि होते हैं, अत: उनका व्यक्तित्व इतना सरल होना चाहिए कि जनता उन्हें देखकर भ्रमित ना हो सके। इसलिए शाही संस्कृति को बढ़ावा देने वाले राजनेताओं को इससे परहेज़ करना चाहिए।

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