सोमवार, 16 जून 2014

बिन बिजली सब सून


जनसत्ता ( रविवारी में प्रकाशित)
15 जून, 2014


इन दिनों देश गंभीर बिजली संकट के दौर से गुजर रहा है। समाचार चैनलों और अखबारों में इस बाबत लगातार खबरें प्रसारित और प्रकाशित हो रही हैं। हालांकि इस लेखक का मानना है कि बिजली संकट की इस समस्या की मूल वजह बिजली उत्पादन में कमी से ज्यादा उसके वितरण में असमानता और विभागीय लापरवाही है। बिजली की किल्लत को लेकर चर्चा इसलिए भी अधिक हो रही है, क्योंकि राजधानी दिल्ली में कई घंटे बिजली की कटौती की जा रही है। प्रायः हर साल मई से जुलाई महीने तक बिजली संकट की वजह से लोग परेशान रहते हैं। बावजूद इसके बिजली की कमी को दूर करने की दिशा में गंभीर पहल नहीं की जाती। इस देश में बिजली और पानी की समस्या बेहद संवेदनशील मसला है। इतिहास साक्षी है कि इस समस्या को लेकर आंदोलन करने वाले सैकड़ों लोग सड़क से संसद और विधानसभाओं का सफर तय कर चुके हैं।



बिजली की बढ़ती हुई मांग के अनुरूप उत्तर प्रदेश सरकार ने कोई ठोस योजना नहीं बनाई। विपक्षी पार्टियों के दबाव में सरकार ने अप्रैल महीने से महंगी दरों पर बिजली खरीद रही है। हालांकि जून महीने में बिजली की मांग अत्यधिक है, लेकिन सरकार उतनी बिजली खरीद पाने में असर्मथ है। आज हालत यह है कि उत्तर प्रदेश में न तो बिजली है और न ही बिजली खरीदने के लिए सरकारी खजाने में पैसा। पिछले साल उत्तर प्रदेश में दो निजी क्षेत्र की थर्मल पावर स्थापित हुई हैं, लेकिन पर्याप्त कोयला नहीं मिल पाने की वजह से यहां उत्पादन में कमी आई है। दरअसल, कोयले की कमी नए बिजली घरों की स्थापना में एक बड़ी बाधा है। पिछले साल दीपावली के मौके पर उत्तर प्रदेश विद्युत निगम ने 11640 मेगावाट बिजली खरीदी थी, लेकिन मंहगी दरों पर बिजली खरीदकर उसे सस्ती दरों पर आपूर्ति करने से काफी नुकसान हुआ। नतीजतन राज्य के ज्यादातर बिजली बोर्ड घाटे में चल रहे हैं। फिलहाल उनके पास पैसा ही नहीं है कि बाजार से बिजली खरीद कर उसकी आपूर्ति करें। एक अनुमान के मुताबिक उत्तर प्रदेश बिजली बोर्ड पर चौंतीस हजार करोड़ रुपये का कर्ज है। जहां बैंक बिजली बोर्ड को ऋण देने से मना कर रहें हैं, वहीं थर्मल पावर कंपनियां भी उधार में बिजली देने से मना कर रही हैं। इतना ही नहीं, ट्रांसफार्मर, बिजली के खंभे और तार की आपूर्ति करने वाली कंपनियों का लगभग बारह सौ करोड़ रुपये का बकाया उत्तर प्रदेश बिजली बोर्ड पर है। उत्तर प्रदेश पॉवर कार्पोरेशन में घाटे का दूसरा सबसे बड़ा कारण बिजली की चोरी है। सूबे में जितनी बिजली की आपूर्ति होती है, उसका लगभग साठ फीसद दाम ही वसूल हो पाता है। बिजली की चोरी ज्यादातर बड़े कारखानों में होती है। यह चोरी विद्युत विभाग के अधिकारियों की मिलीभगत से ही होती है। अगर बिजली पर रोक लगा दी जाए, तो न सिर्फ उत्तर प्रदेश, बल्कि सभी राज्यों में बिजली बोर्ड के घाटे को कम किया जा सकता है। अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो बिजली चोरी पर लगाम लगाई जा सकती है। केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय के मुताबिक, देश में बिजली चोरी एक बड़ी समस्या है। हर साल इसमें वृद्धि दर्ज की जा रही है। मौजूदा समय में 66,000 मेगावाट बिजली की चोरी देश भर में होती है। लिहाजा बिजली चोरी रोकने के लिए सख्ती से अभियान चलाया जाना चाहिए और इसके लिए अधिकारियों को पूरे अधिकार दिए जाने चाहिए।

देश का कोई ऐसा शहर या कस्बा नहीं होगा, जहां बिजली की मांग को लेकर लोगों ने धरना-प्रदर्शन अथवा सड़क जाम नहीं किया होगा। बिजली विभाग के कार्यालयों में तोड़फोड़ तो गर्मियों के मौसम में आम बात है। अगर देश की जिला अदालतों में मौजूद न्यायिक अभिलेखों का अध्ययन करें, तो अलग-अलग वर्षों में हजारों मुकदमें यहां दर्ज हैं। मैंने स्वयं अपने कॉलेज के दिनों से लेकर आज तक बिजली संकट की वजह से होने वाले आंदोलनों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से देखा है। जून महीने में समूचा देश बिजली की कमी से परेशान है। जाहिर है बिजली की कमी होने पर जलसंकट होना स्वभाविक है। दिल्ली में तो बाकी राज्यों के मुकाबले हालत अच्छी है, लेकिन पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार आदि  राज्यों में हालत बेहद खराब हैं। बिजली की कटौती का असर न सिर्फ जनजीवन पर पड़ा है, बल्कि इससे कल-कारखानों के उत्पादन पर भी असर पड़ा है। फिलहाल जैसी गर्मी पड़ रही है, उससे इस बात की पूरी आशंका है कि आने वाले दिनों में आंध्र प्रदेशतमिलनाडु, कर्नाटक और तेलंगाना में भी स्थिति बिगड़ सकती है। मौजूदा हालात के मद्देनजर इस बात की भी प्रबल आशंका है कि कहीं पिछली बार की तरह ग्रिड न फेल हो जाए। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2012 में उत्तरी ग्रिड फेल होने से दिल्ली समेत सभी उत्तर भारत के कई राज्य अंधेरे में डूब गए थे।
इस समय सबसे बुरी हालत उत्तर प्रदेश की है। यहां पावर कार्पोरेशन के पास न तो पर्याप्त बिजली बनाने की क्षमता है और न ही इतना पैसा कि वह बाहर से खरीद कर बिजली की आपूर्ति कर सके। एक अनुमान के मुताबिक, उत्तर प्रदेश के सभी जिलों में बिजली आपूर्ति के लिए 25 हजार मेगावाट बिजली चाहिए, लेकिन राज्य में करीब ढाई हजार मेगावाट बिजली बनती है। उत्तर प्रदेश में राजकीय थर्मल पावर की बिजली बेहद सस्ती यानी 2.31 रुपये प्रति यूनिट मिलती है। प्रदेश को करीब चार हजार मेगावाट बिजली केंद्रीय बिजली घरों से मिलती है। इसकी दर करीब 3 रुपये प्रति यूनिट होती है। इस तरह उत्तर प्रदेश पावर कार्पोरेशन के पास औसतन आठ हजार मेगावाट बिजली होती है। निजी बिजलीघरों की बिजली जरूरतों के अनुसार, तीन रुपये से लेकर सोलह रुपये प्रति यूनिट खरीदी जाती है। दरअसल पिछले दो दशकों में उत्तर प्रदेश में सरकारी क्षेत्र में एक भी बिजलीघर स्थापित न होना बिजली संकट का एक बड़ा कारण है।

गौरतलब है कि इस समय देश में 2,28,721.73 मेगावाट बिजली का उत्पादन होता है। इनमें कोयला से 1,34388.39 ( 58.75 फीसद) गैस से 20,380.85 ( 8.91 फीसद) तेल से 1199.75 (0.52 फीसद), जल विद्युत 39,788.40 ( 17.39 फीसद) परमाणु ऊर्जा 4780.00 (2.08 फीसद) और नवीनीकरण ऊर्जा श्रोत 28,184.35 (12.32 फीसद) बिजली का उत्पादन होता है। वर्ष 1947न में जब देश आजाद हुआ था, उस समय 1362 मेगावाट बिजली का ही उत्पादन होता था। निश्चित रूप से आजादी के साढ़े छह दशक बाद देश में बिजली उत्पादन में काफी वृद्धि हुई है, लेकिन सरकारी उदासीनता और विभागीय लापरवाही की वजह से न सिर्फ देश में बिजली की बर्बादी हो रही है, बल्कि देश आज भी लाखों गांव ऐसे हैं, जहां सदियों से अंधेरा है।
बिजली उत्पादन के मामले में देश निरंतर प्रगति कर रहा है, लेकिन वैश्विक स्तर पर भारत में प्रति व्यक्ति सबसे कम बिजली की खपत होती है। पूरी दुनिया में औसतन बिजली की खपत 2430 यूनिट है, जबकि भारत में यह 884 यूनिट है। वर्ष 2010 के आंकड़ों पर निगाह डालें तो जहां कनाडा में प्रति व्यक्ति बिजली की खपत 15,145 यूनिट, संयुक्त राज्य अमेरिका में 13,361, आस्ट्रेलिया में 10,063, जापान में 8,399, कोरिया में 9,851, फ्रांस में 7,756, जर्मनी में 7,217, ब्रिटेन में 5,741 और इटली में प्रति व्यक्ति 5,384 यूनिट बिजली की खपत दर्ज की गई। भारत में प्रति व्यक्ति बिजली की खपत कम है, लेकिन प्रति वर्ष उसकी मांग में सात प्रतिशत की वृद्धि हो रही है। ऐसे में सवाल यह है कि जिस अनुपात में बिजली की मांग बढ़ रही है, उस अनुपात में बिजली का उत्पादन नहीं हो रहा है। 

केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय के अनुसार, आजादी के 65 वर्षों बाद भी देश के 30 राज्यों में से महज नौ राज्यों- गुजरात, आंध्र प्रदेशदिल्लीगोवा, हरियाणाकेरलपंजाबकर्नाटक और तमिलनाडु में ही पूरी तरह विद्युतीकरण हो पाया है। देश के 21 राज्यों के लाखों गांव आज भी अंधेरे में डूबे हुए हैं। देश के कुल केंद्रीय राजस्व का 18 फीसद राशि बिजली उत्पादन और उसकी आपूर्ति पर खर्च किया जाता है, बावजूद इसके देश में बिजली संकट की समस्या गंभीर बनी हुई है। दरअसल देश में बिजली संकट के लिए एक नहीं, बल्कि कई कारण जिम्मेदार हैं। एत तरफ ज्यादातर राज्यों के विद्युत बोर्ड धन की कमी से जूझ रहे हैं। दूसरी तरफ कोयले की भारी कमी, बिजली चोरी और सब्सिडी का असमान वितरण भी इस संकट का सबसे बड़ा कारण है। आजादी के समय देश में 60 फीसद बिजली उत्पादन का काम निजी कंपनियों के हाथ में था, जबकि मौजूदा समय में 80 फीसद बिजली का उत्पादन सरकारी क्षेत्रों के हाथों में है।

दिल्ली में भीषण गर्मी और बिजली कटौती की वजह से लोगों का जीना मुहाल हो गया है। पिछले दिनों दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग ने बिजली संकट से निपटने के लिए गंभीर मंत्रणा की। उपराज्यपाल ने बिजली संकट को लेकर कई खास निर्देश दिए हैंताकि लोगों की परेशानी कम हो सके। उन्होंने राजधानी दिल्ली में रात 10 बजे के बाद मॉल्स की बिजली आपूर्ति रोकने और सड़कों पर लगे हाई मास्ट हैलोजन लैम्प्स को पीक आवर के बाद बंद करने के निर्देश दिए हैं। इसके अलावा, सचिवालय समेत सभी सरकारी शिक्षण संस्थानों और कार्यालयों में दोपहर साढ़े तीन बजे से शाम साढ़े चार बजे तक एसी बंद रखने का भी निर्देश दिया। दिल्ली में तापमान बढ़ने के साथ ही बिजली की मांग बढ़ती जा रही है। राजधानी में जून महीने में बिजली की मांग औसतन 6000 मेगावाट है, जबकि मध्य जून तक इसकी आपूर्ति 4600 मेगावाट रही। बिजली विभाग के अधिकारियों की मानें, तो दिल्ली में पिछले दिनों आई आंधी की वजह से बिजली आपूर्ति में काफी बाधा उत्पन्न हुई है। कई जगहों पर हाई टेंशन टावरों में खराबी आई है, तो दर्जनों स्थानों पर बिजली के खंभे क्षतिग्रस्त हो गए। दिल्ली में सबसे अधिक बिजली कटौती ग्रामीण इलाके, अनधिकृत कॉलोनियों और झुग्गी-झोपड़ियों के इलाकों में की जा रही हैं।  


पिछले आठ वर्षों में देश में बिजली का उत्पादन ठीक-ठाक रहा। वर्ष 2004 में देश में बिजली का कुल उत्पादन 1.75 लाख मेगावाट थीजबकि वर्ष 2012 में यह 2.28 मेगावाट पहुंच गई। इस अवधि में लगभग 53,000 मेगावाट बिजली उत्पादन में इजाफा हुआ है, बावजूद इसके देश में बिजली की कमी से लोग हलकान हैं। वर्ष 2012 के आंकड़ों के मुताबिक, राज्यों के द्वारा कुल 90,062.14 ( 39.37 फीसद) मेगावाट बिजली का उत्पादन किया गया। वहीं केंद्रीय विद्युत उत्पादन कंपनियों की ओर से 65,732.94 ( 28.73 फीसद) मेगावाट बिजली का उत्पादन किया गया और निजी क्षेत्र की कंपनियों ने इस दौरान 72,926.66 ( 31.88 फीसदी) मेगावाट बिजली का उत्पादन किया। जनसंख्या के लिहाज से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की हालत सबसे ज्यादा खराब है। वर्ष 2000-01 में प्रदेश की कुल विद्युत उत्पादन क्षमता 5,613 मेगावाट थी। योजना आयोग से नवीनतम आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2011-12 में आश्चर्यजनक ढंग से यह महज 4,619.4 मेगावाट रह गई। आखिर बिजली उत्पादन में इस कमी का जिम्मेदार कौन है, यह सबसे बड़ा सवाल है। बिहार दूसरा ऐसा राज्य है, जहां बिजली उत्पादन और उसकी आपूर्ति में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। वर्ष 2000-01 में सूबे में बिजली की कुल उत्पादन क्षमता 2000 मेगावाट थी। फिलहाल यह घटकर यह अब घटकर मात्र 612 मेगावाट रह गई है। लिहाजा बिहार के सभी जिलों में बिजली आपूर्ति के लिए बाजार से बिजली खरीदनी पड़ रही है। मध्य प्रदेश में भी बिजली की कमी एक बड़ी समस्या है। राज्य की कुल विद्युत उत्पादन क्षमता 9,085 मेगावाट है। जिसमें से राज्य सरकार 4598 मेगावाट का योगदान देती हैजबकि केंद्रीय विद्युत कंपनियां 4092 मेगावाट का योगदान करती हैं। महाराष्ट्र में बिजली की मांग जहां 16,000 मेगावाट हैवहीं राज्य में कुल उत्पादित बिजली 11,000 मेगावाट है। यानी मांग और आपूर्ति के बीच 5000 मेगावाट का अंतर है। इस अंतर को भरने के लिए तमाम सरकारी प्रयास नाकाफी ही साबित हुए हैं।

योजना आयोग के आंकड़ों के मुताबिक, देश की लगभग चालीस करोड़ आबादी आज भी विद्युत सेवा से महरूम हैं। इनमें से ज्यादातर वे लोग हैं, जो सुदूर ग्रामीण अंचलों में रहते हैं। प्रथम संप्रग सरकार में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वर्ष 2004 में कहा था कि साल 2009 तक केंद्र सरकार देश के सभी गांवों में बिजली पहुंचाएगी। अपने दूसरे कार्यकाल यानी वर्ष 2009 में प्रधानमंत्री ने कहा कि 2011 तक इस लक्ष्य की पूर्ति संभव है। अलबत्ता वर्ष 2011 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने फिर कहा कि साल 2012 तक देश के सभी गांव रौशन हो जाएंगे। फिर वर्ष 2012 में उन्होंने कहा कि 2017 तक सभी गांवों में बिजली पहुंचाया जाएगा। अब जबकि 2014 में छह महीने बीत चुके हैं और देश में नई सरकार भी बन चुकी है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि अगले पंद्रह वर्षों भी इसके आसार दूर-दूर तक नहीं हैं। पिछले 25 वर्षों पर अगर निगाह डालें, तो देश में 50 प्रतिशत विद्युतीकरण भी नहीं हुआ है। 

देश में परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से बिजली उत्पादन को बढ़ाया जाए, तब भी वर्ष 2020 तक हम अधिक से अधिक 40,000 मेगावट बिजली ही बना पाएंगे, जो हमारी जरूरत के हिसाब से कम होगा और वह देश की कुल बिजली उत्पादन का 9 फीसदी से ज्यादा नहीं होगा। बिजली संकट को दूर करने के लिए परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाना चाहिए, कई लोग ऐसी दलील देते हैं, लेकिन इसमें तनिक भी सच्चाई नहीं है। परमाणु उर्जा संयंत्र न सिर्फ खतरनाक है, बल्कि बिजली उत्पादन के अन्य श्रोतों के मुकाबले यह महंगी भी है। भारत जैसे देश में जहां नियमित सड़कों की सफाई नहीं हो पाती, वहां बड़े पैमाने पर परमाणु कचरे का निस्तारण कैसे होगा, यह एक गंभीर सवाल है। भारत में तटीय क्षेत्रों की लंबाई करीब 7000 किलोमीटर है। इन इलाकों में सूर्य की प्रर्याप्त रोशनी सालों पर मिलती है। अगर इन क्षेत्रों में सौर ऊर्जा संयंत्रों की स्थापना की जाए, तो देश के कई राज्यों में बिजली संकट दूर हो सकता है। राजस्थान और गुजरात जैसे राज्यों में पवन ऊर्जा संयंत्र लगाए गए हैं, लेकिन सरकार को चाहिए कि वह इसे और अधिक बढ़ावा दे। देश में बिजली संकट दूर करने के लिए सरकार को ऊर्जा वैकल्पिक श्रोतों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। देश में सर्वाधिक बिजली कोयले से पैदा की जाती है। इसके लिए देश में कई सुपर थर्मल पावर बनाए गए हैं। 
मारे देश में कुछ कृषिगत संसाधन भी हैं, जिससे काफी मात्रा में बिजली पैदा की जा सकती है और वह पर्यावरण के लिए भी नुकसानदायक नहीं होगा। बिहार गंगा-कोसी इलाके मसलन खगड़िया, बेगूसराय, मुंगेर, भागलपुर, मधेपुरा, पूर्णिया और कटिहार जिलों में बड़े पैमाने पर मक्के और धान की खेती की जाती है। उसी तरह आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में भी मक्के और धान की खेती होती है। फसल पकने पर लाखों टन मक्के की सूखी डंठल और धान की भूसी व पुआल किसानों के खेतों में जमा रहते हैं। विशेषज्ञों की मानें, तो इससे बिजली पैदा हो सकती है। मक्का उत्पादक कई देशों में इससे बिजली पैदा की जा रही है। अगर इस तकनीक का उपयोग हमारे देश में किया जाए, तो वह बिजली की कमी दूर करने में सहायक सिद्ध होगी। बिजली सिर्फ कोयला और परमाणु से पैदा होगी, हमें इस भ्रम से बाहर आना चाहिए। निश्चित रूप से सरकार को एक ऐसी विद्युत नीति बनानी चाहिए, जिसमें छोटे-छोटे विद्युत संयंत्र स्थापित कर कृषिजनित संसाधनों की मदद से बिजली बनाने की दिशा में पहल करनी चाहिए।


शनिवार, 14 जून 2014

चरमपंथियों के आगे बौनी होती पाक हुकूमत

तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (महसूद गुट) के दहशतगर्दों ने पिछले दिनों कराची स्थित जिन्ना अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर जो तबाही मचाई, दरअसल वह एक बड़े खतरे की ओर इशारा कर रही है। आतंकवादियों और सेना के बीच घंटों हुई इस मुठभेड़ में दस तालिबानी दहशतगर्दों समेत कुल सैंतीस लोगों की मौत हो गई। इसके अगले ही दिन कराची एयरपोर्ट सिक्योरिटी फोर्स के कैंप पर भी आतंकवादियों ने हमला किया, जिसमें पांच सुरक्षाकर्मी मारे गए और करीब आधा दर्जन लोग जख्मी हुए।  

( दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 13 जून, 2014 को प्रकाशित आलेख)
 हालांकि इन दिनों नवाज शरीफ सरकार और तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के बीच शांति वार्ता चल रही है, लेकिन इसे लेकर खुद टीटीपी में ही मतभेद पैदा हो गया है। यह मतभेद उस वक्त शुरू हुआ, जब वर्ष 2009 में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के संस्थापक बैतुल्लाह महसूद अमेरिकी ड्रोन हमले में मारे गए थे। उसके बाद हकीमुल्लाह महसूद को टीटीपी का नया प्रमुख बनाया गया, लेकिन पिछले साल अमेरिकी ड्रोन हमले में हमीमुल्लाह महसूद की मौत के बाद संगठन की बागडोर एक गैर महसूद कमांडर के हाथों में चली गई। नतीजतन टीटीपी का आंतरिक कलह खुलकर सामने आ गया और महसूद गुट अपने मनमाफिक तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान का संचालन करने लगा। कराची में हुए ताजा हमले और करीब दो महीने पहले इस्लामाबाद की जिला अदालत में हुए बम धमाकों में यही गुट शामिल था। तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान( महसूद गुट) आने वाले दिनों में और भी बड़े हमले कर सकता है, ताकि सरकार, सेना और आइएसआइ तक यह पैगाम पहुंच सके कि असली तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान वही है, जो शांति वार्ता के सख्त खिलाफ है। ऐसे में इसकी प्रबल आशंका है कि वर्चस्व की लड़ाई को लेकर तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के दोनों गुटों के बीच भविष्य में खूनी संघर्ष भी हो सकता है। अगर ऐसा होता है, तो निश्चित रूप से पाकिस्तान सरकार और सेना के लिए यह एक राहत की बात होगी।  
लाइव इंडिया समूह के अख़बार "प्रजातंत्र लाइव" में प्रकाशित आलेख- 14 जून, 2014

कराची हवाई अड्डे पर मारे गए आतंकवादियों से जो सामान बरामद किए गए हैंउससे स्पष्ट है कि दहशतगर्द पूरी तैयारी के साथ जिन्ना हवाई अड्डे पर कब्जा करने आए थे। फर्ज करेंअगर दहशतगर्द अपने मंसूबे में कामयाब हो जातेतो निःसंदेह अमेरिका और मुंबई हमले के साथ-साथ कराची हमला को भी लंबे समय तक याद रखा जाता। इत्तेफाक से जिस दिन कराची में यह हमला हुआउसी दिन बलूचिस्तान में ईरान से स्वदेश लौट रहे पच्चीस शिया जायरीनों को दहशतगर्दों ने मौत के घाट उतार दिया। पाकिस्तान में शियाओं पर हमले की यह पहली घटना नहीं है। इससे पहले क्वेटा में वर्ष 2013 में शिया समुदाय के 200 लोगों को बेरहमी से कत्ल कर दिया गया। वर्ष 2012 में भी क्वेटा और डेरा इस्माइल खान में 400 शियाओं को मौत के घाट उतार दिया गया। इन सभी हमलों के पीछे लश्कर-ए-झांगवी का हाथ हैजिसे तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान की सरपरस्ती हासिल है। जिस तहरीक-ए-तालिबान की वजह से पाकिस्तान सरकार बौना साबित हो रही हैदरअसल मुल्क में उसकी जड़ें वर्ष 2007 के बाद से लगातार मजबूत होती चली गईं। अफगानिस्तान में नाटो फौज के हाथों मिली करारी शिकस्त के बाद इस संगठन ने पाकिस्तान में अपना विस्तार किया। मुल्क में शरिया कानून लागू करने का जो ख्वाब अफगानिस्तान में अधूरा रह गया थाउसे तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान लागू कराने के लिए प्रयासरत है। तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान जिन विचारों पर यकीन करती हैउसमें लोकतंत्र के लिए कहीं कोई जगह नहीं हैक्योंकि उनकी नजरों में जम्हूरियत पूरी तरह गैर इस्लामी है।
पिछले सात वर्षों के दौरान पाकिस्तान में तहरीक-ए-तालिबान काफी मजबूत हुआ है। दक्षिणी वजीरिस्तान में करीब एक दर्जन आतंकी संगठनों के आपसी विलय के बाद तहरीक-ए-तालिबान की बुनियाद पड़ी। उसके बाद यह दुर्गम कहे जाने वाले उत्तरी वजीरिस्तान और स्वात घाटी में अपना सांगठनिक विस्तार किया। फिलहाल तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान का खौफ इस्लामाबाद, कराची, लाहौर, क्वेटा, पेशावर, डेरा गाजी खान, मुल्तान, कोहाट, रावलपिंडी और फैसलाबाद समेत सभी जिलों में देखा जा सकता है। पाकिस्तान में टीटीपी की गतिविधियों को राजनीतिक संघर्ष कहना ही काफी नहीं है। दरअसल, वे अपनी इन हिंसक गतिविधियों को जिहाद का जामा पहनाकर मासूम नौजवानों को बरगला कर अपना स्वार्थ पूरा कर रहे हैं। 

तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान की विचारधारा में प्रगतिशीलता और आजादख्याली की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पाकिस्तान की दहशतगर्द तंजीमों के लिए ईशनिंदा कानून भी अपने विरोधियों के खिलाफ आज एक बड़ा हथियार बन चुका है। इस कानून की आड़ में न सिर्फ अल्पसंख्यक ईसाईयों और हिंदुओं, बल्कि बहुसंख्यक मुसलमानों पर भी जुल्म ढ़ाए जा रहे हैं। पाकिस्तान सरकार ने आजादी के समय वर्ष 1860 में बने इस ब्रिटिश कानून को लागू किया था। उस वक्त ईशनिंदा का दोष सिद्ध होने पर दो साल की सजा दी जाती थी। उन दिनों ईशनिंदा की शिकायत डिप्टी कमिश्नर के दफ्तर में दर्ज कराने का प्रावधान था। डिप्टी कमिश्नर मामले की जांच करने के बाद ही मुकदमा दायर करने का आदेश जारी करते थे, लेकिन वर्ष 1986 में सैन्य शासक जनरल जिया उल हक ने ईशनिंदा कानून के प्रावधानों को बदलकर दोषी व्यक्तियों के लिए मौत की सजा या उम्र कैद मुकर्रर कर दी। वर्ष 1989 में पाकिस्तान की संघीय शरिया अदालत ने ईशनिंदा के आरोपी की सजा उम्र कैद से बदलकर सजा-ए-मौत कर दी।

पाकिस्तान में तहरीक-ए-तालिबान का असर बढ़ने के बाद मामूली कहासुनी को भी ईशनिंदा के मामले से जोड़कर देखा जाने लगा है। एक अध्ययन के अनुसार, पिछले पांच वर्षों में पाकिस्तान के अलग-अलग सूबों में ढ़ाई सौ लोगों के ऊपर ईशनिंदा का आरोप लगाया गया है। इनमें ज्यादातर लोग अल्पसंख्यक समुदाय के ईसाई और हिंदू हैं। इस मामले में कई लोगों को सजा भी हो चुकी है। आसिया बीबी नामक ईसाई महिला उन्हीं में से एक है, जो इन दिनों जेल में बंद है। आसिया बीबी की सजा माफ कराने और ईशनिंदा कानून में संशोधन की पहल करने की वजह से ही पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तासीर और पाकिस्तान में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री शाहबाज भट्टी की वर्ष 2011 में इस्लामाबाद में सरेआम हत्या कर दी गई। 

पाकिस्तान में इन दो बड़े राजनेताओं की हत्या के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने ईशनिंदा कानून में किसी तरह की तब्दीली करने का ख्याल अपने जेहन से निकाल दिया था। आज पाकिस्तान जिस दौर से गुजर रहा हैउसे देखकर नहीं लगता कि मौजूदा नवाज शरीफ सरकार ईशनिंदा कानून में किसी तरह का बदलाव करने का जोखिम उठाएगी। पाकिस्तान में अदालतों, न्यायाधीशों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के ऊपर भी लगातार हमले हो रहे हैं। पिछले महीने मुल्तान में पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग के सदस्य और मशहूर वकील राशिद रहमान मलिक की गोली मारकर हत्या कर दी गई। वह ईशनिंदा मामले के एक आरोपी की पैरवी कर रहे थे। राशिद रहमान पाकिस्तान के उन चंद वकीलों में से एक थे, जो आतंकवादियों की धमकी के बावजूद ईशनिंदा का आरोप झेल रहे बेगुनाह लोगों का मुकदमा लड़ने का साहस रखते थे।
  

पाकिस्तान की मौजूदा हालात को देखकर पूरी दुनिया चिंतित है। जनरल जिया सरकार की नीतियों की वजह से यह देश धार्मिक कट्टरवाद की भेंट चढ़ गया। दहशतगर्दी और इंतिहापसंदी का आलम यह है कि वहां प्रगतिशील बातें करना अब खतरे से खाली नहीं है। दरअसल, पाकिस्तान में मीडिया और राजनीतिक दलों का एक तबका ऐसा भी है, जो परोक्ष रूप से तालिबान और आइएसआइ की हिमायत करता है। अगर तालिबान को सियासी दलों का समर्थन नहीं मिल रहा होता, तो वह आज इतनी मजबूत स्थिति में नहीं होते। जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम के नेता मौलाना फजलुर्रहमान और इमरान खान की अगुवाई वाली तहरीक-ए इंसाफ पार्टी ने तो हमेशा तालिबान की तरफदारी की है। पाकिस्तान में आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो जनरल जिया उल हक की उन नीतियों को पसंद करते हैं, जिससे मुल्क की बेहतरी कम और दुर्गति ज्यादा हुई है। यही वजह है कि आज पाकिस्तान में मुहम्मद अली जिन्ना के सपनों का पाकिस्तान कहीं नजर नहीं आता, बल्कि जनरल जिया के ख्वाबों का पाकिस्तान जरूर देखा जा सकता है। 

पाकिस्तान में दहशतगर्द जिस तरह अदालतों में घुसकर बम धमाके करते हैं, हवाई अड्डे पर हमला करते हैं, सैन्य छावनियों को निशाना बनाते हैं, मस्जिद और मजारों पर बम विस्फोट करते हैं, वह वाकई चिंता की बात है। अगर किसी रोज ये दहशतगर्द पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट में घुस कर न्यायाधीशों की हत्या कर दें, परमाणु हथियारों पर कब्जा कर लें, नेशनल असेंबली में घुसकर नेताओं को मौत के घाट उतार दें, तो क्या होगा ?  भविष्य में ऐसी घटनाएं न हों, इसके लिए सरकार, सेना और आइएसआइ को अब साथ मिलकर सुरक्षा की ठोस नीतियों पर विचार करना चाहिए, वरना पाकिस्तान एक गंभीर दुष्चक्र में फंस सकता है। 

शुक्रवार, 13 जून 2014

उसना भात की खुशबू



ननिहाल और बचपन में स्कूल की छुट्टियों का रिश्ता इस देश में लगभग किंवदंती बन चुका है। हम सभी इसका हिस्सा रहे हैं, खासकर वे लोग जिन्होंने नई आर्थिक नीतियों के आने से पहली अपनी आंख गांव-कस्बों में खोली। बात क़रीब बाइस-तेइस साल पहले की है। तब मैं भी खासकर अगहन-पूस के महीने में अपने ननिहाल दरभंगा जाता रहता था। ननिहाल जाना मुझे इसलिए भी अच्छा लगता था कि वहां धान की खेती बड़े पैमाने पर होती थी, जो मुझे आकर्षित करती थी।
नवंबर-दिसंबर में हर छोटे-बड़े गृहस्थ के दालान के सामने पुआल का ढेर लगा होता था। वहीं पर गाय-गोरू को खूटों में बांधा जाता था, ताकि वे अपनी मर्जी से पुआल खा सकें। शाम ढलने पर गाय-बैल और बछड़ों को गोहाल यानी उसके रहने की जगह पर बांध दिया जाता। मवेशियों की पीठ पर जूट से बना बोरा रख दिया जाता था ताकि सर्दी से उनका बचाव हो सके। दुआरी-बथान पर घूरा (अलाव) लगाया जाता। उस घूरे से बच्चे अमाड़ी ( बछड़े का गोबर), धान की खखरी और पशुओं के नहीं खाने योग्य पुआल बटोर कर लाते थे। रात आठ बजे तक घूरे के आसपास बूढ़े, नौजवान और बच्चे देह तापते थे। आंगन से भोजन का बुलावा आने पर खैनी-तंबाकू थूकते हुए बड़े-बुजुर्ग खांसते हुए घर की तरफ चल देते। मैं भी उन्हीं लोगों के साथ खाना-खाकर सोने के लिए दालान में वापस आ जाता था। पूरे बरामदे में मोटी पुआल बिछी होती थी, जो जाड़ा बीतने पर ही हटाई जाती थी।  
सुबह हमारी नींद दुआरी पर धान छांटने की आवाज़ और नानी के चूल्हे पर पक रहे उसना भात की सोंधी गंध से टूटती थी। सुबह नौ बजते-बजते घर में दाल, भात और तरकारी के साथ खेसारी या चने का साग तैयार हो जाता था। चूंकि दरभंगा जिले में तालाब और पोखर ढेरों हैं, इसलिए हर सुबह मछली बेचने वाले गांव में दो-चार फेरा लगा ही लेते थे। मेरे नाना के पास अपना पोखर भी है, जिसमें रोहू, कतला, बुआरी और पोठिया जैसी कई मछलियां पाली जाती हैं। गैंची, सिंघी, कवई और टेंगरा जैसी देसी मछलियां अक्सर धान के खेतों या कुंभी वाले पोखरों में मिलती थीं, सो नाना हर हफ्ते कहीं न कहीं से ले ही आते थे। ये बातें नब्बे की दशक की हैं। मुझे अच्छी तरह से याद है, तब गांव के इक्का-दुक्का लोग ही दिल्ली और पंजाब कमाने के लिए जाते थे। कुछ लोग सूरत में हीरे तराशने का काम हालांकि ज़रूर करते थे। उन लोगों को लेकर मेरे ननिहाल में एक अलग छवि थी। मसलन, गांव आने पर जब वे लोग अच्छा कपड़ा पहनकर हाट-बाजार जाते थे और वहां से मुर्गा ख़रीदकर लाते थे, तो अक्सर यह सुनने को मिलता कि फलाने के पास खूब पैसा है और यह पैसा उसने हीरे चुराकर बनाया है। इस बात में तनिक भी सच्चाई नहीं थी, क्योंकि सूरत में काम करने वाले वे लोग आम मजदूर ही थे।
ननिहाल में सबसे ज्यादा मजा आता था किसी के यहां भोज खाने में। बच्चा था, इसलिए हर रोज यह मनाता था कि गांव में किसी के यहां भोज हो। भोज का न्यौता आने पर हम लोग बड़े-बुजर्गों के साथ लोटा में पानी लेकर जाते थे। वहां केले के पत्तल पर खाना परोसा जाता था। जिनके यहां भोज होता था, उनके यहां कई पेट्रोमैक्स जल रहे होते थे। गांव-समाज के लोग खुद से खाना बनाते थे, किसी हलवाई की आवश्यकता नहीं पड़ती थी, चाहे जितने भी लोगों का खाना बनाना पड़े।
कुछ साल पहले की बात है जब मुझे कई बरस बाद फिर से ननिहाल जाने का मौका मिला। बचपन की यादें रह-रह कर दिमाग पर छाने की कोशिश कर रही थीं। गांव पहुंचने पर हालांकि मेरा सारा उत्साह ठंडा पड़ गया। नाना के दरवाजे से मवेशी गायब थे। आसपास जिन खपरैल के मकानों की यादें मन में बसी हुई थीं, वहां अब पक्के मकान बन चुके थे। बाड़ी से अमरूद और केले के पेड़ नदारद थे, उनकी जगह मोबाइल कंपनियों के टावर खड़े थे। नानी को गुजरे भी कई साल हो गए, इसलिए घर में उसना धान तैयार होना भी बंद हो गया। सुबह के नौ बजे थे, मामी ने नाश्ते में पूड़ी और सब्जी खाने को दिया। दोपहर के भोजन में कई तरह सब्जियां, सलाद और रोटी थी, लेकिन थाली में उसना भात की जगह महीन अरवा चावल था। मेरी आंखें उस मोटे उसना भात और खेसारी के साग को तलाश रही थीं, जिसे देखे कई बरस बीत गए। पूछने पर बताया गया कि अब यहां उसना भात नहीं पकता, क्योंकि रसोई गैस काफी महंगी हो गयी है। उसे पकाने में अधिक समय लगता है। शाम होने पर घूरे की याद आई, लेकिन वहां से कोई धुआं नहीं निकल रहा था। दलान पर पुआल की जगह पलंग बिछा हुआ था और उस पर गद्दा और तकिया मानो मेरा इंतजार कर रहे थे। मेरे जेहन में पुआल की वही पुरानी मोटी परत बसी थी, जिसने मुझे पूरी रात सोने नहीं दिया।
सुबह होने पर बदलाव के कुछ और निशान देखने को मिले। मसलन, देसी मछलियां बेचने शाम तक कोई नहीं आया। आसपास के सभी घरों में वीरानी छाई हुई थी। पूछने पर बताया गया कि सभी लोग दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और मुंबई जैसे शहरों में कमाने गए हैं। कुछ लोग जो हाल-फिलहाल परदेस से कमाकर घर लौटे थे, उनके हाथों में फिलिप्स और संतोष’ रेडियो की जगह नोकिया और माइक्रोमैक्स कंपनियों के मोबाइल थे। अब उन लोगों पर कटाक्ष करने की फुर्सत किसी के पास नहीं थी, कि उसके पास पैसा कहां से आया। 

अगले दिन नाना के यहां कहीं से भोज खाने का न्यौता आया, इसलिए खुशी-खुशी मैं भी उनके साथ चल दिया। पेट्रोमैक्स की जगह वहां ट्यूब लाइट्स लगे हुए थे। केले और सखुआ के पत्तल की जगह उजले रंग का थर्मोकोल से बना प्लेट टेंट हाउस से आए, टेबलों पर बिछाया जा रहा था। पूड़ी-सब्जी के साथ पुलाव भी बनाया जा रहा था। आसपास सभी लोग हाथ पर हाथ धरे खड़े थे। जैसे-जैसे लोग आते थे, उन्हें टेबल पर बैठाकर खिलाया जा रहा था। अचानक किसी ने आवाज लगाई, “ हलवाई से कहो जरा और पूड़ियां बनाए और साथ में सब्जी भी।”  यह सुनकर मुझे अहसास हो गया कि गांव वाकई बदल चुका है, क्योंकि जहां कुछ साल पहले मरणी-हरणी के भोज में खुद से खाना बनाते थे, आज वहां हलवाइयों की मदद ली जा रही है। जैसा अमूमन शहरों में होता है, लोग मेहमान की तरह आते और न्यौता पूरा कर चले जाते, वैसे ही दृश्य यहां भी देखने को मिल रहा था।



गांवों में आए इस बदलाव का जिम्मेदार आखिर कौन है? देश की नई आर्थिक नीति और उससे तहस-नहस हुआ सामाजिक ताना-बाना या खुद हम लोग? बदलाव अच्छी बात है, लेकिन इस तरह का बदलाव जहां आपसी भाईचारा ही खत्म हो जाए और एक दूसरे से बात करने के लिए हम संयोग की तलाश करें, यह तकलीफदेह है। अफसोस आज भारत के गांव इसी रास्ते पर चल पड़े हैं। हर कोई शहर की तरफ दौड़ लगा रहा है। एक गांव से दूसरे गांव को जोड़ने वाली सड़कें तंग हो चुकी हैं और खेतों की ओर जाने वाली पगडंडियों पर जंगली घास उग आई है।

बुधवार, 7 मई 2014

असम के गुनगहार


असम के कोकराझार, बक्सा और चिरांग जिले में पिछले दिनों हुई सांप्रदायिक हिंसा सत्तारूढ़ तरुण गोगोई सरकार की एक बड़ी नाकामी है। आधिकारिक तौर पर इस हिंसा में अड़तीस लोगों की मौत हुई है, जिसमें बच्चे और औरतें भी शामिल हैं, लेकिन गैर सरकारी आंकड़े मृतकों की संख्या इससे कहीं ज्यादा बता रहे हैं, क्योंकि जंगलों और तालाबों से शवों के मिलने का सिलसिला अब भी जारी है। सरकार, मीडिया और खुफिया एजेंसियों के मुताबिक, यह हिंसा चुनावी रंजिश का नतीजा है, क्योंकि कोकराझार संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) के उम्मीदवार को गैर बोडो यानी बंगाली हिंदू, कोच राजवंशी और बांग्लाभाषी मुसलमानों ने वोट नहीं दिया। इसके बरअक्स निर्दलीय चुनाव लड़ रहे उल्फा के एक पूर्व कमांडर के पक्ष में इन लोगों ने जमकर मतदान किया। सिर्फ इसे हिंसा की एकमात्र वजह कहना शायद जल्दबाजी होगी, क्योंकि एके 47 जैसे स्वचालित हथियारों से लैस हमलावरों ने जिस तरह गांवों पर हमला किया, उससे साबित होता है कि यह हमला पूर्व नियोजित था। एनडीएफबी (संगबिजित गुट) के इनकार के बावजूद, उसे इस हमले के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। इसके पीछे दो कारण हैं। पहला कारण इस संगठन का शांति वार्ता को लेकर अड़ियल रुख और दूसरा कारण उल्फा के साथ इसका मतभेद। एनडीएफबी (एस) केंद्र सरकार के साथ शांति वार्ता के सख्त खिलाफ है, जबकि एनडीएफबी (रंजन दैमारी गुट) इन दिनों शांति प्रक्रिया में शामिल है। एनडीए सरकार के समय वर्ष 2003 में नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (एनडीएफबी) से हुए समझौते के बाद बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद (बीटीसी) वजूद में आया। समझौते के तहत कोकराझार, बक्सा, उदालगुड़ी और चिरांग जिलों को मिलाकर बोडोलैंड क्षेत्रीय स्वायत्त जिला (बीटीएडी) का गठन किया गया था। बीटीसी पर फिलहाल बोडो पीपुल्स फ्रंट का कब्जा है, जो असम की गोगोई सरकार में भी शामिल है।
      
असम की ताजा हिंसा मुसलमानों और बोडो उग्रवादियों के बीच जारी तनाव का नतीजा है। दोनों समुदायों के बीच यह रंजिश वर्षों पुरानी है। असम पिछले कई दशकों से अनेकों बार सांप्रदायिक और जातीय हिंसा की आग में झुलस चुका है। राज्य के बोडो बहुल जिन इलाकों में हालिया हिंसा हुई है, वहां दो साल पहले भी बोडो जनजाति और मुसलमानों के बीच फसाद हो चुके हैं। उस हिंसा में भी करीब सवा सौ लोगों की जानें गई थी और तकरीबन चार लाख से अधिक लोग बेघर हुए थे। उस समय विपक्षी पार्टियों के शोर-शराबे के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने असम के हिंसा प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया था, लेकिन इस बार प्रधानमंत्री का हिंसा प्रभावित इलाकों में जाना तो दूर, उन्होंने अपनी जुबान से पीड़ितों के लिए हमदर्दी के दो शब्द भी नहीं बोले। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को असम जाना चाहिए, क्योंकि वह इसी सूबे से राज्यसभा के सदस्य हैं। पिछले दस वर्षों से वह देश के प्रधानमंत्री हैं और राज्यसभा में असम का प्रतिनिधित्व भी कर रहे हैं। यह राज्य गरीबी, बेरोजगारी और उग्रवाद की समस्या से ग्रस्त है, बावजूद इसके प्रधानमंत्री ने असम की बेहतरी के लिए कोई ऐसा काम नहीं किया, जिसे वहां की जनता याद रख सके।
असम में जिस बांग्लादेशी मुसलमानों की मौजूदगी के सवाल पर शोर मचाया जाता है, वह अर्द्ध सत्य है। असम में बांग्लाभाषी मुसलमानों को वर्ष 1826 में ब्रिटिश सरकार की पहल पर एकीकृत बंगाल से राज्य के कोकराझार, बक्सा, नलबाड़ी, बारपेटा, चिरांग, नौगांव और तिनसुकिया जिलों में बसाया गया था। असम में कृषि कार्य को बढ़ावा देने और बंगाल में जनदबाव कम करने के लिए अंग्रेजों ने ऐसा किया था। बांग्लाभाषी मुसलमान कई पीढ़ियों से असम में निवास कर रहे हैं। गुवाहाटी स्थित बोर्ड ऑफ रेवेन्यु कार्यालय और संबंधित जिला भू-अभिलेखागारों में भी इससे संबंधित कागजात देखे जा सकते हैं। तमाम दस्तावेजी प्रमाण उपलब्ध होने के बावजूद पिछले 188 वर्षों से बोडो बहुल कोकराझार, बक्सा और चिरांग जिले में रहने वाले इन लोगों को आज भी हिंदुस्तानी होने का सबूत देना पड़ रहा है और समय-समय पर उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ रही है। गौरतलब है कि वर्ष 1826 से लेकर वर्ष 1953 तक असम में बांग्लाभाषी मुसलमान, बोडो जनजाति और हिंदू आपसी सामंजस्य बनाकर रहे। 

उनके बीच धर्म और भाषा को लेकर कभी कोई समस्या पैदा नहीं हुई, लेकिन वर्ष 1954 के बाद हालात बदलने लगे और इन इलाकों में बांग्लाभाषी मुसलमानों को शक की नजर से देखा जाने लगा। मसलन, हर छोटी-छोटी बातों को तूल देना आम बात हो गई। नतीजतन आपसी नोंक-झोंक बाद के दिनों में खूनी संघर्ष में तब्दील होने लगा। वर्ष 1983 में तत्कालीन नौगांव जिले की नेल्ली में हुई सांप्रदायिक हिंसा इसका उदाहरण है। इस फसाद में लगभग 5000 मुसलमानों की हत्या कर दी गई थी। दोनों समुदायों के बीच अविश्वास का यह सिलसिला देश की आजादी के ठीक बाद शुरू हो गया था। असम से सटा, जो भू-भाग कभी पूर्वी बंगाल कहलाता था, विभाजन के बाद वह पूर्वी पाकिस्तान हो गया। आर्थिक रूप से संपन्न मुसलमान एवं हिंदू कोलकाता और दिल्ली समेत अन्य शहरों में बस गए, लेकिन गरीब मुसलमान और हिंदू पूर्वी पाकिस्तान की सीमा से सटे पश्चिम बंगाल और असम के ग्रामीण इलाकों में आकर रहने लगे। 25 मार्च, 1971 को बांग्लादेश कायम होने के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और बांग्लादेश के राष्ट्रपति शेख मुजीबुर्रहमान के बीच 1972 में एक समझौता हुआ, जिसके तहत वर्ष 1971 से पहले सीमा पार जाने वाले सभी अप्रवासियों को गैर बांग्लादेशी घोषित किया गया।
  हालांकि बीते तैंतालीस वर्षों में बांग्लादेश से लाखों लोग भारत आए। इनमें हिंदुओं से कहीं अधिक संख्या मुसलमानों की है। असम और पश्चिम बंगाल की सरकारों के लिए शुरूआत में घुसपैठ एक बड़ी समस्या थी, लेकिन बाद में यही समस्या उनके लिए राजनीतिक संजीवनी बन गई। एक ओर जहां मुस्लिम विस्थापितों के मुद्दे पर असम में धरना-प्रदर्शन होने लगा, वहीं हिंदू विस्थापितों के साथ सहानुभूति प्रकट की जाने लगी। इस दोहरे रवैये की वजह से घुसपैठ की समस्या और उसकी  निष्पक्षता सवालों के घेरे में आ गई। अस्सी के दशक में ऑल असम स्टूडेंट यूनियन के आंदोलन के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1983 में आईएमडीटी एक्ट लागू किया था, लेकिन बाद इसमें खामियां दिखने लगी। नतीजतन वर्ष 2005 में उच्चतम न्यायालय ने एक याचिका की सुनवाई करते हुए इस कानून को निरस्त कर दिया। दरअसल, इस कानून का मुख्य उद्देश्य वर्ष 1971 के बाद असम में गैर कानूनी ढंग से बसे बांग्लादेशी नागरिकों की पहचान कर, उन्हें वापस उनके देश भेजना था। लेकिन आंकड़े बताते हैं कि इस कानून के तहत सिर्फ दस हजार लोगों को ही चिन्हित किया जा सका। उन दिनों असम में इसे लेकर वोट बैंक की राजनीति भी शुरू हो गई थी। बांग्लादेशी नागरिकों को वापस भेजा जाए या नहीं, इस पर सियासी पार्टियों में तलवारें खिंच गई। गौरतलब है कि बांग्लादेशी नागरिकों को राज्य से बाहर निकालने के सवाल पर सत्ता हासिल करने वाली असम गण परिषद भी बाद में अपनी इस मांग से पीछे हट गई। आईएमडीटी एक्ट का जो हश्र हुआ, उसकी मिसाल शायद ढूंढने से भी नहीं मिलेगी। बहरहाल, असम में यह हिंसा उस वक्त हुई है, जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी विदाई की घड़ियां गिन रहे हैं। अपने कार्यकाल के शेष दिनों में उन्हें अशांत असम देखना पड़ेगा, इसकी कल्पना प्रधानमंत्री ने स्वयं नहीं की होगी।


शुक्रवार, 9 जनवरी 2009

लोकतंत्र में राजतंत्र की माया


उत्तर प्रदेश सूबे की मुखिया मायावती के जन्मदिन की तैयारियां ज़ोरों पर थी- जिसे लेकर उनकी पार्टी और समर्थकों के बीच ज़बर्दस्त उत्साह था। इस शाही जन्मदिन के नाम पर प्रदेश भर में चंदा वसूली अभियान चलाया जा रहा था, हालांकि इस वसूली को सियासी नाम दिया गया स्वैच्छिक अंशदान....। लेकिन एन वक्त पर औरैया के एक पीडब्ल्यूडी इंजीनियर ने सारा गुड़ गोबर कर दिया। उसने बहन जी के वफ़ादार विधायक जी को चंदा देने से इंकार कर दिया। नतीज़तन उस जिद्दी इंजीनियर को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। बेचारे खुद तो गए मगर जाते-जाते बहन जी के यौमे-पैदाइश को बुरी नज़र लगा गए।
इंजीनियर की हत्या के बाद प्रदेश के विपक्षी पार्टियां और राजनीतिक वनवास झेल रहे नेताओं को मायावती पर हमला बोलने का बे़हतरीन मौका दे दिया। इस सब के बावज़ूद आज सवाल ये है कि- मौजूदा राजनीति से आम आदमी इतना भयभीत क्यों है। औरैया की घटना पर राजनीतिक बयानबाजी तो बहुतों ने की, लेकिन उस रोग के बारे में कोई क्यों नहीं बोल रहा जो धीरे-धीरे देश की राजनीति को ग्रसित करती जा रही है। भारत में राजतंत्र गुज़रे जमाने की बात हो चुकी है, लेकिन उसका अक्स आज़ भी दलीय राजनीति और नेताओं के सार्वजनिक जीवन में देखने को मिलता है।

राजनीति और राजनेताओं के फ़ेहरिस्त में मायावती एकलौती नहीं है- जिन्होंने पद पर रहते हुए शाही संस्कृति को बढ़ावा ना दिया हो। इससे पहले भी लखनऊ में पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन पर लाल जी टंडन द्वारा साड़ी बाँटने के कारण मची भगदड़ में गरीब़ औरतों की मौतें हुईं। कुछ दिनों तक हंगामा हुआ, राजनीतिक पार्टियों ने आरोप-प्रत्यारोप के खेल खेले फ़िर मुर्दे की तरह मामला भी हमेशा के लिए शांत हो गया।
लोकतंत्र में असीम शक्ति होती है- तभी तो कोई राजनेता अपनी बिटिया की शादी में शो-रूम से महँगी कारे जब़रन उठवा लेते है। तो किसी राजनेता के यहाँ बारात हेलीकॉप्टर के ज़रिए पहुँचती है। इन दिनों राजनेताओं को रैली में स्वर्ण मुकुट पहनाने, चांदी की तलवार और गदा भेंट करने, सिक्कों और लड्डुओं से तौलने की परिपाटी ज़ोरों पर है। जिसे देखकर राजाओं और नबावों की छवि ज़ेहन में उतरने लगती है।
कुछ दशकों से देश में जातिगत सम्मेलन और रैलियों की बाढ़ आई हुई है। हर जाति और उपजाति स्तर पर संगठनों का गठन किया गया है। कुछ राजनीतिक पार्टियों को छोड़ दिया जाए तो राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियाँ इनमें खूब रूचि ले रहे हैं और इनके नेता इन्हें अपना समर्थन भी दे रहे हैं। अफ़सोस इस बात की ये है कि देश में सांप्रदायिकता के नाम पर खूब शोर मचाया जाता है, लेकिन जातिगत आधार पर हो रही राजनीति को मौन स्वीकृति दे दी गई है। वज़ह भी साफ़ है कि कई क्षेत्रीय पार्टियों को संजीवनी इन्हीं जातिगत राजनीति से ही मिलती है।
हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि सांप्रदायिक विद्वेष से कहीं खतरनाक जातिगत भावना है। सांप्रदायिकता की आग तो कभी-कभार धधकती है, लेकिन जातिगत नफ़रतों की आग समाज और देश को जलाने का काम करती है। राजनीति बगैर उच्च आदर्शों और विचारो के बिना निर्जीव है। नेता जनता के प्रतिनिधि होते हैं, अत: उनका व्यक्तित्व इतना सरल होना चाहिए कि जनता उन्हें देखकर भ्रमित ना हो सके। इसलिए शाही संस्कृति को बढ़ावा देने वाले राजनेताओं को इससे परहेज़ करना चाहिए।

गुरुवार, 8 जनवरी 2009

मुंबई हमला और दोनों मुल्कों की मीडिया

26 नवंबर को हुए मुंबई हमला गुज़रे साल की दर्दनाक यादों में शुमार हो गया....। यह घटना लंबे अरसे तक हर भारतीय को सालती रहेगी। मुंबई हमलों की हकीक़त ज्यों-ज्यों सामने आयी- पाकिस्तान की असलियत भी खुलकर सामने आने लगी। इस दहशतगर्दी वाकयात से दोनों देशों के बीच जारी शांति प्रक्रिया की ऱफ़्तार को काफ़ी धक्का लगा है। नतीज़तन भारत-पाकिस्तान के रिश्तों में कशीदगी ज़रूर पैदा हो गई है। दोनों हुकूमतों ने एक दूसरे पर इल्ज़ामों की झड़ी लगा दी है।

एक तरफ़ भारत पाकिस्तान को सबूत दर सबूत दे रहा है-लेकिन पाकिस्तान इसे मुक्ममल क़रार नहीं दे रहा। इधर भारत विश्व बिरादरी को पाकिस्तान के नखरे सुनाता है तो उधर बड़ी साफ़गोई से अपना पल्ला झाड़ने की कोशिशें करता है। इन सब के बावज़ूद आख़िरकार पाकिस्तान ने यह क़बूल कर ही लिया कि – मुंबई हमलों में शामिल अज़मल कसाब पाकिस्तानी नागरिक ही है। इस बात की पुष्टि की- शेरी रहमान ने जो वहां की सूचना और प्रसारण मंत्री हैं। जो एक जमाने में खुद भी पत्रकार रह चुकी हैं।

ये तो रही सियासत और हुकूमतों की भाषा- जिसे आवाज़ दी दोनों देशों की अख़बारी और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने। 26/11 से पहले सरहद के दोनों ओर मीडिया का मिज़ाज़ सामान्य था। लिहाज़ा एक दूसरों की ख़बरे सही रूप से दोनों देशों तक पहुँचती थी- लेकिन मुंबई हमलों के बाद ये स्थितियां बदलने लगी और दोनों आग उगलने की क़वायद में जुट गए। हालांकि उनमें भी कुछ अपवाद रहे – जिन्होंने अपने ज़ज्बातों पर क़ाबू रखते हुए अपना संतुलन बरक़रार रखा। उसे गुस्सा और नेताओं के सोच की भाषा नहीं बनने दिया।
कराची से प्रकाशित होने वाला डॉन पाकिस्तान में अंग्रेजी सर्वाधिक लोकप्रिय अख़बार है- जिसने मुंबई हमलों के बारे सही और संतुलित ख़बरें प्रकाशित की। उसके संपादकीय में भी एक गंभीरता दिखी। डॉन ग्रुप के ही ज़ियो टीवी ने जो पहल की वह काब़िले ताऱीफ़ है। ज़ियो टीवी पर पहली बार खुद नवाज़ शरीफ़ ने अपने इंटरव्यू में कहा कि – अज़मल कसाब पाकिस्तानी है और उसका ताल्लुकात फ़रीदकोट जिले से है। हालांकि इस इंटरव्यू के बाद पाकिस्तान में बवाल मच गया- नतीज़तन जियो टीवी के पत्रकार हामिद म़ीर के खिलाफ़ लाहौर हाईकार्ट में देशद्रोह का मामला भी दर्ज़ किया गया। जबकि डॉन ग्रुप के ही उर्दू अख़बार जंग नज़रिया कुछ और ही रहा। भारत के खिलाफ़ खबरें छापने में उसने कोई सुस्ती नहीं दिखाई। पाकिस्तान के दूसरे मीडिया ग्रुप नवा-ए-वक्त की बात करें तो उसके अंग्रेज़ी अख़बार द नेशन को छोड़कर बाकी निदा-ए-मिल्लत और जहांनुमा तो युद्ध की भाषा लिखते रहे और भारत के हर दावों पर नुक्ताचीनी की है। वहीं द न्यूज़ और डेली टाइम्स का रवैया भी सही नहीं रहा। जबकि फ्राइडे टाइम्स मे मुंबई की घटना पर हो रही ब़यानबाजी को लेकर दोनों देशों को जमकर लताड़ा।

बात अगर भारत की मीडिया की करें तो- मुंबई हमलों से जुड़े रिपोर्टिंग में प्रिंट ओर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अलग-अलग ख़ेमों में साफ़ नज़र आए। न्यूज़ चैनलों ने जिस नाटकीय ढंग से कवरेज़ की उसकी जमकर आलोचना हो रही है। पाकिस्तान के मुकाबले भारत में अखबारों और न्यूज़ चैनलों की संख्या बहुत ज्यादा है, लेकिन जिस तरह का संयम और गंभीरता का परिचय पाकिस्तानी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया खासकर जियो टीवी और दुनिया टीवी ने दिखाया- उससे कुछ सीख भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को लेना चाहिए।

सोमवार, 29 दिसंबर 2008

कब थमेगा मध्य-पूर्व में खूनी खेल ?

छह महीने के युद्ध विराम के बाद मध्य- पूर्व एक बार फ़िर से अशांत हो गया है। इज़रायल ने फ़लीस्तीनी शहर गाज़ापट्टी में मिसाइल हमले किए, जिसमें दो सौ से ज्यादा लोग मारे गए और हज़ारों की तादाद में लोग घायल हुए हैं। इन हमलों के पीछे इज़रायल का दावा है कि उसने ये हमले गाज़ा में हमास के आतंकी शिविरों पर किए हैं,जो कुछ रोज़ पहले इज़रायल पर रॉकेट हमलों का ज़बाब है। इसके साथ इज़रायल ने ये भी धमकी दी है कि वो हमास के ख़िलाफ़ फ़लीस्तीन में ज़मीनी लड़ाई से भी गुरेज़ नहीं करेगा। इस हमले की निंदा अरब लीग समेत यूरोपियन यूनियन ने भी की है- जबकि ह्वाइट हाउस ने ब़यान जारी किया है कि इज़रायल को अपनी सुरक्षा का पूरा हक़ है। लेकिन अमरीका ने ये नहीं कहा कि ये तुरंत बंद होने चाहिए। वैसे अमरीका से इसकी उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए। क्योंकि इज़रायल-फलीस्तीन विवाद में उसका क़िरदार दुनिया से छुपा नहीं है।
इज़रायल- फ़लीस्तीन मसला आज की तारीख़ में सबसे विवादास्पद मुद्दा है- इनके बीच जारी संघर्ष में लाखों लोग अपनी जान गवां चुके हैं और लाखों लोग बेघर हो चुके हैं। इस आग में समूचा मध्य-पूर्व जल रहा है। समूची दुनिया की पंचायत करने वाला संयुक्त राष्ट्रसंघ की भूमिका भी संतोषजनक नहीं है। जहां तक अमेरिका की बात है तो उसकी असलियत कुछ इस प्रकार है-

इज़रायल और अरब राष्ट्रों के बीच हुए भीषण युद्ध के बाद तत्कालीन इज़रायली प्रधानमंत्री एहुद बराक और फ़लीस्तीनी नेता यासिर अराफ़ात के बीच अमेरिका के कैम्प डेविड में पन्द्रह दिनों तक चली मध्य-पूर्व शांति शिखर वार्ता बगैर किसी नतीज़े के ख़त्म हो गई। इस विफलता की मूल वज़ह वो तीन मुद्दे थे लगभग 37 लाख फलीस्तीनी शरणार्थियों का भविष्य, भावी फ़लीस्तीनी राज्य की सीमाएं और येरूशलम पर नियंत्रण। इन तीनों मुद्दों पर इज़रायली प्रधानमंत्री बराक और यासिर अराफात के बीच कोई सहमति नहीं बन पाई और नतीज़ा रहा सिफ़र। ये सब अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की सक्रिय मध्यस्थता के बीच हुआ। जिसे पश्चिमी मीडिया ने अमरीका के शांति एवं लोकतंत्र प्रेम के रूप में खूब बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित किया। लेकिन अमरीका की मौजूदगी में शांति वार्ता का ये हश्र कोई ताज़्जुब की बात नहीं है।

इज़रायल और फ़लीस्तीनी अरबों के बीच के विवाद के प्रेक्षकों से ये बात छिपी नहीं है कि पिछले पाँच दशकों के दौरान इस क्षेत्र में अमन बहाली के लिए अमरीकी कोशिशों का मतलब क्या रहा है। हमेशा अमरीकी नेतृत्व ने इज़रायल- फ़लीस्तीनियों के बीच समझौते के नाम पर इज़रायली शर्तें मनवाने की कोशिश की है। इज़रायली वजूद की ही बात करें तो- तमाम औपनिवेशिक साम्राज्यवादी साजिशों के तहत नवंबर 1947 में संयुक्त राष्ट्रसंघ फ़लीस्तीन को एक अरब और एक यहूदी राज्य के रूप में बाँटने को राज़ी हो गया था। लेकिन यहूदियों को यह भी गवारा नहीं हुआ, इससे पहले कि विभाजन हो पाता यहूदियों ने इज़रायल नाम से देश का ऐलान कर दिया।
अमेरिका ने बेहद फुर्ती दिखलाते हुए अगले ही दिन उसे मान्यता भी दे दी और उसी दिन से फ़लीस्तीनी अरबों के दर-दर भटकने का अंतहीन सिलसिला शुरू हो गया। लाखों की तादाद में अपना वतन छोड़कर उन्हें विभिन्न अरब राष्ट्रों में शरण लेनी पड़ी। उनकी ज़मीन ज़ायदाद पर यहूदियों ने कब्ज़ा कर लिया और धीरे-धीरे लगभग सारे फ़लीस्तीन पर अपना नियंत्रण कर लिया। इस दौरान अरब राष्ट्रों से इज़रायल के तीन घमासान युद्ध हुए। अमरीका की हर प्रकार की मदद से वह हर युद्ध में अरब राष्ट्रों के कुछ न कुछ इलाकों पर कब्ज़ा करता रहा। 1967 के युद्ध में इज़रायल ने पश्चिमी तट (वेस्ट बैंक), गाज़ा पट्टी, गोलान हाइट्स, सिनार और पूर्वी येरूशलम पर कब्ज़ा कर अपने में मिला लिया।
बहरहाल, 1967 के अरब- इज़रायल युद्ध के बाद विश्व जनमत चिंतित हो उठा एवं मध्य-पूर्व में अमन बहाली की कोशिशों में तेज़ी आई। इसके तहत संयुक्त राष्ट्रसंघ सक्रिय हुआ- संयुक्त राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद् का प्रस्ताव 242 पारित हुआ। जिसमें पूर्ण शांति का आह्वान करते हुए इज़रायल से कब्ज़ा किए गए अरब क्षेत्रों से हट जाने को कहा गया, लेकिन इस प्रस्ताव को अमल में नहीं लाया जा सका। हांलाकि इस चार्टर पर सबने दस्तख़त किए थे, लेकिन अमरीका ने ढ़ीला-ढ़ाला रूख अपनाते हुए इसकी नयी व्याख्या कर दी और इसके तहत इज़रायल ने कब्ज़ा किए गए इलाकों से हटने से इंकार कर दिया। नतीज़तन 1976 में इस प्रस्ताव को दुबारा सुरक्षा परिषद् में विचारार्थ लिया गया। इस दफ़ा प्रस्ताव 242 की बातों की रोशनी में एक नया प्रस्ताव बनाया गया, जिसमें साफ़ तौर पर वेस्ट बैंक और गाज़ापट्टी में एक फ़लीस्तीनी राज्य की स्थापना का प्रावधान जोड़ा गया। इस प्रस्ताव का मिस्त्र, जॉर्डन, सीरिया जैसे अरब राष्ट्र, यासिर अराफात की फ़लीस्तीनी मुक्ति संगठन, सोवियत संघ, यूरोप और बाकी दुनिया के देशों ने समर्थन किया। लेकिन अमरीका ने इस प्रस्ताव के खिलाफ़ वीटो का इस्तेमाल कर इसे रद्द करा दिया।



 इसी तरह 1980 में एक ऐसे ही प्रस्ताव पर अमरीका ने फिर वीटो का इस्तेमाल किया – इसके बाद ये मामला संयुक्त राष्ट्रसंघ की आमसभा में हर साल उठता रहा और इसके खिलाफ़ सिर्फ़ अमरीका और इज़रायल अपना वोट देते रहे। इतिहास से ये सारी बातें मानो निकाल दी गई हैं – उनकी जगह शांति स्थापना के अमरीकी प्रयासों की प्रेरक कथाओं ने ले ली है। और बताया जा रहा है कि अमन बहाली की ये सारी कोशिशें अरबों के कारण ही सफल नहीं हो पा रहे हैं।

अगर मध्य-पूर्व में वाकई अमन बहाली कायम करनी है तो इज़रायल- अमरीका को थोड़ा और आगे जाकर सोचना होगा। इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि अमन की कोशिशों को थोड़ी हिम्मत और समझ के साथ उसे सही अंज़ाम पर पहुँचाया जाए। इस मामले में इज़रायल-फ़लीस्तीन समस्या के सबसे गहन अध्येता और महान अमरीकी चिंतक नोम चोम्स्की के शब्दों में हम सिर्फ़ इतना कहेगें 
अगर राजनीतिक भ्रमों को छोड़कर मानवाधिकार एवं लोकतंत्र के सवाल को ध्यान में रखेंगे तो निश्चय ही इस समस्या का स्थाई हल निकलेगा।