शनिवार, 14 जून 2014

चरमपंथियों के आगे बौनी होती पाक हुकूमत

तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (महसूद गुट) के दहशतगर्दों ने पिछले दिनों कराची स्थित जिन्ना अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर जो तबाही मचाई, दरअसल वह एक बड़े खतरे की ओर इशारा कर रही है। आतंकवादियों और सेना के बीच घंटों हुई इस मुठभेड़ में दस तालिबानी दहशतगर्दों समेत कुल सैंतीस लोगों की मौत हो गई। इसके अगले ही दिन कराची एयरपोर्ट सिक्योरिटी फोर्स के कैंप पर भी आतंकवादियों ने हमला किया, जिसमें पांच सुरक्षाकर्मी मारे गए और करीब आधा दर्जन लोग जख्मी हुए।  

( दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 13 जून, 2014 को प्रकाशित आलेख)
 हालांकि इन दिनों नवाज शरीफ सरकार और तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के बीच शांति वार्ता चल रही है, लेकिन इसे लेकर खुद टीटीपी में ही मतभेद पैदा हो गया है। यह मतभेद उस वक्त शुरू हुआ, जब वर्ष 2009 में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के संस्थापक बैतुल्लाह महसूद अमेरिकी ड्रोन हमले में मारे गए थे। उसके बाद हकीमुल्लाह महसूद को टीटीपी का नया प्रमुख बनाया गया, लेकिन पिछले साल अमेरिकी ड्रोन हमले में हमीमुल्लाह महसूद की मौत के बाद संगठन की बागडोर एक गैर महसूद कमांडर के हाथों में चली गई। नतीजतन टीटीपी का आंतरिक कलह खुलकर सामने आ गया और महसूद गुट अपने मनमाफिक तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान का संचालन करने लगा। कराची में हुए ताजा हमले और करीब दो महीने पहले इस्लामाबाद की जिला अदालत में हुए बम धमाकों में यही गुट शामिल था। तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान( महसूद गुट) आने वाले दिनों में और भी बड़े हमले कर सकता है, ताकि सरकार, सेना और आइएसआइ तक यह पैगाम पहुंच सके कि असली तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान वही है, जो शांति वार्ता के सख्त खिलाफ है। ऐसे में इसकी प्रबल आशंका है कि वर्चस्व की लड़ाई को लेकर तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के दोनों गुटों के बीच भविष्य में खूनी संघर्ष भी हो सकता है। अगर ऐसा होता है, तो निश्चित रूप से पाकिस्तान सरकार और सेना के लिए यह एक राहत की बात होगी।  
लाइव इंडिया समूह के अख़बार "प्रजातंत्र लाइव" में प्रकाशित आलेख- 14 जून, 2014

कराची हवाई अड्डे पर मारे गए आतंकवादियों से जो सामान बरामद किए गए हैंउससे स्पष्ट है कि दहशतगर्द पूरी तैयारी के साथ जिन्ना हवाई अड्डे पर कब्जा करने आए थे। फर्ज करेंअगर दहशतगर्द अपने मंसूबे में कामयाब हो जातेतो निःसंदेह अमेरिका और मुंबई हमले के साथ-साथ कराची हमला को भी लंबे समय तक याद रखा जाता। इत्तेफाक से जिस दिन कराची में यह हमला हुआउसी दिन बलूचिस्तान में ईरान से स्वदेश लौट रहे पच्चीस शिया जायरीनों को दहशतगर्दों ने मौत के घाट उतार दिया। पाकिस्तान में शियाओं पर हमले की यह पहली घटना नहीं है। इससे पहले क्वेटा में वर्ष 2013 में शिया समुदाय के 200 लोगों को बेरहमी से कत्ल कर दिया गया। वर्ष 2012 में भी क्वेटा और डेरा इस्माइल खान में 400 शियाओं को मौत के घाट उतार दिया गया। इन सभी हमलों के पीछे लश्कर-ए-झांगवी का हाथ हैजिसे तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान की सरपरस्ती हासिल है। जिस तहरीक-ए-तालिबान की वजह से पाकिस्तान सरकार बौना साबित हो रही हैदरअसल मुल्क में उसकी जड़ें वर्ष 2007 के बाद से लगातार मजबूत होती चली गईं। अफगानिस्तान में नाटो फौज के हाथों मिली करारी शिकस्त के बाद इस संगठन ने पाकिस्तान में अपना विस्तार किया। मुल्क में शरिया कानून लागू करने का जो ख्वाब अफगानिस्तान में अधूरा रह गया थाउसे तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान लागू कराने के लिए प्रयासरत है। तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान जिन विचारों पर यकीन करती हैउसमें लोकतंत्र के लिए कहीं कोई जगह नहीं हैक्योंकि उनकी नजरों में जम्हूरियत पूरी तरह गैर इस्लामी है।
पिछले सात वर्षों के दौरान पाकिस्तान में तहरीक-ए-तालिबान काफी मजबूत हुआ है। दक्षिणी वजीरिस्तान में करीब एक दर्जन आतंकी संगठनों के आपसी विलय के बाद तहरीक-ए-तालिबान की बुनियाद पड़ी। उसके बाद यह दुर्गम कहे जाने वाले उत्तरी वजीरिस्तान और स्वात घाटी में अपना सांगठनिक विस्तार किया। फिलहाल तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान का खौफ इस्लामाबाद, कराची, लाहौर, क्वेटा, पेशावर, डेरा गाजी खान, मुल्तान, कोहाट, रावलपिंडी और फैसलाबाद समेत सभी जिलों में देखा जा सकता है। पाकिस्तान में टीटीपी की गतिविधियों को राजनीतिक संघर्ष कहना ही काफी नहीं है। दरअसल, वे अपनी इन हिंसक गतिविधियों को जिहाद का जामा पहनाकर मासूम नौजवानों को बरगला कर अपना स्वार्थ पूरा कर रहे हैं। 

तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान की विचारधारा में प्रगतिशीलता और आजादख्याली की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पाकिस्तान की दहशतगर्द तंजीमों के लिए ईशनिंदा कानून भी अपने विरोधियों के खिलाफ आज एक बड़ा हथियार बन चुका है। इस कानून की आड़ में न सिर्फ अल्पसंख्यक ईसाईयों और हिंदुओं, बल्कि बहुसंख्यक मुसलमानों पर भी जुल्म ढ़ाए जा रहे हैं। पाकिस्तान सरकार ने आजादी के समय वर्ष 1860 में बने इस ब्रिटिश कानून को लागू किया था। उस वक्त ईशनिंदा का दोष सिद्ध होने पर दो साल की सजा दी जाती थी। उन दिनों ईशनिंदा की शिकायत डिप्टी कमिश्नर के दफ्तर में दर्ज कराने का प्रावधान था। डिप्टी कमिश्नर मामले की जांच करने के बाद ही मुकदमा दायर करने का आदेश जारी करते थे, लेकिन वर्ष 1986 में सैन्य शासक जनरल जिया उल हक ने ईशनिंदा कानून के प्रावधानों को बदलकर दोषी व्यक्तियों के लिए मौत की सजा या उम्र कैद मुकर्रर कर दी। वर्ष 1989 में पाकिस्तान की संघीय शरिया अदालत ने ईशनिंदा के आरोपी की सजा उम्र कैद से बदलकर सजा-ए-मौत कर दी।

पाकिस्तान में तहरीक-ए-तालिबान का असर बढ़ने के बाद मामूली कहासुनी को भी ईशनिंदा के मामले से जोड़कर देखा जाने लगा है। एक अध्ययन के अनुसार, पिछले पांच वर्षों में पाकिस्तान के अलग-अलग सूबों में ढ़ाई सौ लोगों के ऊपर ईशनिंदा का आरोप लगाया गया है। इनमें ज्यादातर लोग अल्पसंख्यक समुदाय के ईसाई और हिंदू हैं। इस मामले में कई लोगों को सजा भी हो चुकी है। आसिया बीबी नामक ईसाई महिला उन्हीं में से एक है, जो इन दिनों जेल में बंद है। आसिया बीबी की सजा माफ कराने और ईशनिंदा कानून में संशोधन की पहल करने की वजह से ही पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तासीर और पाकिस्तान में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री शाहबाज भट्टी की वर्ष 2011 में इस्लामाबाद में सरेआम हत्या कर दी गई। 

पाकिस्तान में इन दो बड़े राजनेताओं की हत्या के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने ईशनिंदा कानून में किसी तरह की तब्दीली करने का ख्याल अपने जेहन से निकाल दिया था। आज पाकिस्तान जिस दौर से गुजर रहा हैउसे देखकर नहीं लगता कि मौजूदा नवाज शरीफ सरकार ईशनिंदा कानून में किसी तरह का बदलाव करने का जोखिम उठाएगी। पाकिस्तान में अदालतों, न्यायाधीशों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के ऊपर भी लगातार हमले हो रहे हैं। पिछले महीने मुल्तान में पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग के सदस्य और मशहूर वकील राशिद रहमान मलिक की गोली मारकर हत्या कर दी गई। वह ईशनिंदा मामले के एक आरोपी की पैरवी कर रहे थे। राशिद रहमान पाकिस्तान के उन चंद वकीलों में से एक थे, जो आतंकवादियों की धमकी के बावजूद ईशनिंदा का आरोप झेल रहे बेगुनाह लोगों का मुकदमा लड़ने का साहस रखते थे।
  

पाकिस्तान की मौजूदा हालात को देखकर पूरी दुनिया चिंतित है। जनरल जिया सरकार की नीतियों की वजह से यह देश धार्मिक कट्टरवाद की भेंट चढ़ गया। दहशतगर्दी और इंतिहापसंदी का आलम यह है कि वहां प्रगतिशील बातें करना अब खतरे से खाली नहीं है। दरअसल, पाकिस्तान में मीडिया और राजनीतिक दलों का एक तबका ऐसा भी है, जो परोक्ष रूप से तालिबान और आइएसआइ की हिमायत करता है। अगर तालिबान को सियासी दलों का समर्थन नहीं मिल रहा होता, तो वह आज इतनी मजबूत स्थिति में नहीं होते। जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम के नेता मौलाना फजलुर्रहमान और इमरान खान की अगुवाई वाली तहरीक-ए इंसाफ पार्टी ने तो हमेशा तालिबान की तरफदारी की है। पाकिस्तान में आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो जनरल जिया उल हक की उन नीतियों को पसंद करते हैं, जिससे मुल्क की बेहतरी कम और दुर्गति ज्यादा हुई है। यही वजह है कि आज पाकिस्तान में मुहम्मद अली जिन्ना के सपनों का पाकिस्तान कहीं नजर नहीं आता, बल्कि जनरल जिया के ख्वाबों का पाकिस्तान जरूर देखा जा सकता है। 

पाकिस्तान में दहशतगर्द जिस तरह अदालतों में घुसकर बम धमाके करते हैं, हवाई अड्डे पर हमला करते हैं, सैन्य छावनियों को निशाना बनाते हैं, मस्जिद और मजारों पर बम विस्फोट करते हैं, वह वाकई चिंता की बात है। अगर किसी रोज ये दहशतगर्द पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट में घुस कर न्यायाधीशों की हत्या कर दें, परमाणु हथियारों पर कब्जा कर लें, नेशनल असेंबली में घुसकर नेताओं को मौत के घाट उतार दें, तो क्या होगा ?  भविष्य में ऐसी घटनाएं न हों, इसके लिए सरकार, सेना और आइएसआइ को अब साथ मिलकर सुरक्षा की ठोस नीतियों पर विचार करना चाहिए, वरना पाकिस्तान एक गंभीर दुष्चक्र में फंस सकता है। 

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