शुक्रवार, 13 जून 2014

उसना भात की खुशबू



ननिहाल और बचपन में स्कूल की छुट्टियों का रिश्ता इस देश में लगभग किंवदंती बन चुका है। हम सभी इसका हिस्सा रहे हैं, खासकर वे लोग जिन्होंने नई आर्थिक नीतियों के आने से पहली अपनी आंख गांव-कस्बों में खोली। बात क़रीब बाइस-तेइस साल पहले की है। तब मैं भी खासकर अगहन-पूस के महीने में अपने ननिहाल दरभंगा जाता रहता था। ननिहाल जाना मुझे इसलिए भी अच्छा लगता था कि वहां धान की खेती बड़े पैमाने पर होती थी, जो मुझे आकर्षित करती थी।
नवंबर-दिसंबर में हर छोटे-बड़े गृहस्थ के दालान के सामने पुआल का ढेर लगा होता था। वहीं पर गाय-गोरू को खूटों में बांधा जाता था, ताकि वे अपनी मर्जी से पुआल खा सकें। शाम ढलने पर गाय-बैल और बछड़ों को गोहाल यानी उसके रहने की जगह पर बांध दिया जाता। मवेशियों की पीठ पर जूट से बना बोरा रख दिया जाता था ताकि सर्दी से उनका बचाव हो सके। दुआरी-बथान पर घूरा (अलाव) लगाया जाता। उस घूरे से बच्चे अमाड़ी ( बछड़े का गोबर), धान की खखरी और पशुओं के नहीं खाने योग्य पुआल बटोर कर लाते थे। रात आठ बजे तक घूरे के आसपास बूढ़े, नौजवान और बच्चे देह तापते थे। आंगन से भोजन का बुलावा आने पर खैनी-तंबाकू थूकते हुए बड़े-बुजुर्ग खांसते हुए घर की तरफ चल देते। मैं भी उन्हीं लोगों के साथ खाना-खाकर सोने के लिए दालान में वापस आ जाता था। पूरे बरामदे में मोटी पुआल बिछी होती थी, जो जाड़ा बीतने पर ही हटाई जाती थी।  
सुबह हमारी नींद दुआरी पर धान छांटने की आवाज़ और नानी के चूल्हे पर पक रहे उसना भात की सोंधी गंध से टूटती थी। सुबह नौ बजते-बजते घर में दाल, भात और तरकारी के साथ खेसारी या चने का साग तैयार हो जाता था। चूंकि दरभंगा जिले में तालाब और पोखर ढेरों हैं, इसलिए हर सुबह मछली बेचने वाले गांव में दो-चार फेरा लगा ही लेते थे। मेरे नाना के पास अपना पोखर भी है, जिसमें रोहू, कतला, बुआरी और पोठिया जैसी कई मछलियां पाली जाती हैं। गैंची, सिंघी, कवई और टेंगरा जैसी देसी मछलियां अक्सर धान के खेतों या कुंभी वाले पोखरों में मिलती थीं, सो नाना हर हफ्ते कहीं न कहीं से ले ही आते थे। ये बातें नब्बे की दशक की हैं। मुझे अच्छी तरह से याद है, तब गांव के इक्का-दुक्का लोग ही दिल्ली और पंजाब कमाने के लिए जाते थे। कुछ लोग सूरत में हीरे तराशने का काम हालांकि ज़रूर करते थे। उन लोगों को लेकर मेरे ननिहाल में एक अलग छवि थी। मसलन, गांव आने पर जब वे लोग अच्छा कपड़ा पहनकर हाट-बाजार जाते थे और वहां से मुर्गा ख़रीदकर लाते थे, तो अक्सर यह सुनने को मिलता कि फलाने के पास खूब पैसा है और यह पैसा उसने हीरे चुराकर बनाया है। इस बात में तनिक भी सच्चाई नहीं थी, क्योंकि सूरत में काम करने वाले वे लोग आम मजदूर ही थे।
ननिहाल में सबसे ज्यादा मजा आता था किसी के यहां भोज खाने में। बच्चा था, इसलिए हर रोज यह मनाता था कि गांव में किसी के यहां भोज हो। भोज का न्यौता आने पर हम लोग बड़े-बुजर्गों के साथ लोटा में पानी लेकर जाते थे। वहां केले के पत्तल पर खाना परोसा जाता था। जिनके यहां भोज होता था, उनके यहां कई पेट्रोमैक्स जल रहे होते थे। गांव-समाज के लोग खुद से खाना बनाते थे, किसी हलवाई की आवश्यकता नहीं पड़ती थी, चाहे जितने भी लोगों का खाना बनाना पड़े।
कुछ साल पहले की बात है जब मुझे कई बरस बाद फिर से ननिहाल जाने का मौका मिला। बचपन की यादें रह-रह कर दिमाग पर छाने की कोशिश कर रही थीं। गांव पहुंचने पर हालांकि मेरा सारा उत्साह ठंडा पड़ गया। नाना के दरवाजे से मवेशी गायब थे। आसपास जिन खपरैल के मकानों की यादें मन में बसी हुई थीं, वहां अब पक्के मकान बन चुके थे। बाड़ी से अमरूद और केले के पेड़ नदारद थे, उनकी जगह मोबाइल कंपनियों के टावर खड़े थे। नानी को गुजरे भी कई साल हो गए, इसलिए घर में उसना धान तैयार होना भी बंद हो गया। सुबह के नौ बजे थे, मामी ने नाश्ते में पूड़ी और सब्जी खाने को दिया। दोपहर के भोजन में कई तरह सब्जियां, सलाद और रोटी थी, लेकिन थाली में उसना भात की जगह महीन अरवा चावल था। मेरी आंखें उस मोटे उसना भात और खेसारी के साग को तलाश रही थीं, जिसे देखे कई बरस बीत गए। पूछने पर बताया गया कि अब यहां उसना भात नहीं पकता, क्योंकि रसोई गैस काफी महंगी हो गयी है। उसे पकाने में अधिक समय लगता है। शाम होने पर घूरे की याद आई, लेकिन वहां से कोई धुआं नहीं निकल रहा था। दलान पर पुआल की जगह पलंग बिछा हुआ था और उस पर गद्दा और तकिया मानो मेरा इंतजार कर रहे थे। मेरे जेहन में पुआल की वही पुरानी मोटी परत बसी थी, जिसने मुझे पूरी रात सोने नहीं दिया।
सुबह होने पर बदलाव के कुछ और निशान देखने को मिले। मसलन, देसी मछलियां बेचने शाम तक कोई नहीं आया। आसपास के सभी घरों में वीरानी छाई हुई थी। पूछने पर बताया गया कि सभी लोग दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और मुंबई जैसे शहरों में कमाने गए हैं। कुछ लोग जो हाल-फिलहाल परदेस से कमाकर घर लौटे थे, उनके हाथों में फिलिप्स और संतोष’ रेडियो की जगह नोकिया और माइक्रोमैक्स कंपनियों के मोबाइल थे। अब उन लोगों पर कटाक्ष करने की फुर्सत किसी के पास नहीं थी, कि उसके पास पैसा कहां से आया। 

अगले दिन नाना के यहां कहीं से भोज खाने का न्यौता आया, इसलिए खुशी-खुशी मैं भी उनके साथ चल दिया। पेट्रोमैक्स की जगह वहां ट्यूब लाइट्स लगे हुए थे। केले और सखुआ के पत्तल की जगह उजले रंग का थर्मोकोल से बना प्लेट टेंट हाउस से आए, टेबलों पर बिछाया जा रहा था। पूड़ी-सब्जी के साथ पुलाव भी बनाया जा रहा था। आसपास सभी लोग हाथ पर हाथ धरे खड़े थे। जैसे-जैसे लोग आते थे, उन्हें टेबल पर बैठाकर खिलाया जा रहा था। अचानक किसी ने आवाज लगाई, “ हलवाई से कहो जरा और पूड़ियां बनाए और साथ में सब्जी भी।”  यह सुनकर मुझे अहसास हो गया कि गांव वाकई बदल चुका है, क्योंकि जहां कुछ साल पहले मरणी-हरणी के भोज में खुद से खाना बनाते थे, आज वहां हलवाइयों की मदद ली जा रही है। जैसा अमूमन शहरों में होता है, लोग मेहमान की तरह आते और न्यौता पूरा कर चले जाते, वैसे ही दृश्य यहां भी देखने को मिल रहा था।



गांवों में आए इस बदलाव का जिम्मेदार आखिर कौन है? देश की नई आर्थिक नीति और उससे तहस-नहस हुआ सामाजिक ताना-बाना या खुद हम लोग? बदलाव अच्छी बात है, लेकिन इस तरह का बदलाव जहां आपसी भाईचारा ही खत्म हो जाए और एक दूसरे से बात करने के लिए हम संयोग की तलाश करें, यह तकलीफदेह है। अफसोस आज भारत के गांव इसी रास्ते पर चल पड़े हैं। हर कोई शहर की तरफ दौड़ लगा रहा है। एक गांव से दूसरे गांव को जोड़ने वाली सड़कें तंग हो चुकी हैं और खेतों की ओर जाने वाली पगडंडियों पर जंगली घास उग आई है।

1 टिप्पणी:

Harihar (विकेश कुमार बडोला) ने कहा…

सही बात है मित्र। यह दुखकारी परिवर्तन बहुत उदास करता है। बहुत अच्‍छा संस्‍मरण है।